
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्र हि साक्षात् स्ववशस्य परमजिनयोगीश्वरस्य स्वरूपमुक्तम् । यस्तु निरुपरागनिरंजनस्वभावत्वादौदयिकादिपरभावानां समुदयं परित्यज्य काय-करणवाचामगोचरं सदा निरावरणत्वान्निर्मलस्वभावं निखिलदुरघवीरवैरिवाहिनीपताकालुंटाकंनिजकारणपरमात्मानं ध्यायति स एवात्मवश इत्युक्त : । तस्याभेदानुपचाररत्नत्रयात्मकस्य निखिलबाह्यक्रियाकांडाडंबरविविधविकल्पमहाकोलाहलप्रतिपक्षमहानंदानंदप्रदनिश्चयधर्मशुक्ल-ध्यानात्मकपरमावश्यककर्म भवतीति । (कलश--पृथ्वी) जयत्ययमुदारधीः स्ववशयोगिवृन्दारकः प्रनष्टभवकारणः प्रहतपूर्वकर्मावलिः । स्फुटोत्कटविवेकतः स्फुटितशुद्धबोधात्मिकां सदाशिवमयां मुदा व्रजति सर्वथा निर्वृतिम् ॥२४७॥ (कलश--अनुष्टुभ्) प्रध्वस्तपंचबाणस्य पंचाचारांचिताकृतेः । अवंचकगुरोर्वाक्यं कारणं मुक्ति संपदः ॥२४८॥ (कलश--अनुष्टुभ्) इत्थं बुद्ध्वा जिनेन्द्रस्य मार्गं निर्वाणकारणम् । निर्वाणसंपदं याति यस्तं वंदे पुनः पुनः ॥२४९॥ (कलश--द्रुतविलंबित) स्ववशयोगिनिकायविशेषक प्रहतचारुवधूकनकस्पृह । त्वमसि नश्शरणं भवकानने स्मरकिरातशरक्षतचेतसाम् ॥२५०॥ (कलश--द्रुतविलंबित) अनशनादितपश्चरणैः फलं तनुविशोषणमेव न चापरम् । तव पदांबुरुहद्वयचिंतया स्ववश जन्म सदा सफलं मम ॥२५१॥ (कलश--मालिनी) जयति सहजतेजोराशिनिर्मग्नलोकः स्वरसविसरपूरक्षालितांहः समंतात् । सहजसमरसेनापूर्णपुण्यः पुराणः स्ववशमनसि नित्यं संस्थितः शुद्धसिद्धः ॥२५२॥ (कलश--अनुष्टुभ्) सर्वज्ञवीतरागस्य स्ववशस्यास्य योगिनः । न कामपि भिदां क्वापि तां विद्मो हा जडा वयम् ॥२५३॥ (कलश--अनुष्टुभ्) एक एव सदा धन्यो जन्मन्यस्मिन्महामुनिः । स्ववशः सर्वकर्मभ्यो बहिस्तिष्ठत्यनन्यधीः ॥२५४॥ यहाँ वास्तव में साक्षात् स्ववश परमजिनयोगीश्वर का स्वरूप कहा है । जो (श्रमण ) निरुपराग निरंजन स्वभाववाला होने के कारण औदयिकादि परभावों के समुदाय को परित्याग कर, निज कारण-परमात्मा को, कि जो (कारण-परमात्मा)
(कलश--ताटंक)
उदार जिसकी बुद्धि है, भव का कारण जिसने नष्ट किया है, पूर्व कर्मावलि का जिसने हनन कर दिया है और स्पष्ट उत्कट विवेक द्वारा प्रगट-शुद्ध बोधस्वरूप सदाशिवमय सम्पूर्ण मुक्ति को जो प्रमोद से प्राप्त करता है, ऐसा वह स्ववश मुनिश्रेष्ठ जयवन्त है ।शुद्धबोधमय मुक्ति सुन्दरी को प्रमोद से प्राप्त करें । भवकारण का नाश और सब कर्मावलि का हनन करें ॥ वर विवेक से सदा शिवमयी परवशता से मुक्त हुए । वे उदारधी संत शिरोमणि स्ववश सदा जयवन्त रहें ॥२४७॥ (कलश--दोहा)
कामदेव का जिन्होंने नाश किया है और (ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप-वीर्यात्मक) पंचाचार से सुशोभित जिनकी आकृति है, ऐसे अवंचक (मायाचार रहित) गुरु का वाक्य मुक्ति सम्पदा का कारण है ।काम विनाशक अवंचक पंचाचारी योग्य । मुक्तिमार्ग के हेतु हैं गुरु के वचन मनोज्ञ ॥२४८॥ (कलश--दोहा)
निर्वाण का कारण ऐसा जो जिनेन्द्र का मार्ग उसे इसप्रकार जानकर जो निर्वाण सम्पदा को प्राप्त करता है, उसे मैं पुनः पुनः वन्दन करता हूँ ।जिन प्रतिपादित मुक्तिमग इसप्रकार से जान । मुक्ति संपदा जो लहे उसको सतत् प्रणाम॥२४९॥ (कलश--रोला)
जिसने सुन्दर स्त्री और सुवर्ण की स्पृहा को नष्ट किया है ऐसे हे योगी समूह में श्रेष्ठ स्ववश योगी ! तू हमारा, कामदेवरूपी भील के तीर से घायल चित्तवाले का, भवरूपी अरण्य में शरण है ।कनक कामिनी की वांछा का नाश किया हो । सर्वश्रेष्ठ है सभी योगियों में जो योगी ॥ काम भील के काम तीर से घायल हम सब । हे योगी तुम भववन में हो शरण हमारी ॥२५०॥ (कलश--रोला)
अनशनादि तपश्चरणों का फल शरीर का शोषण (सूखना) ही है, दूसरा नहीं । (परन्तु) हे स्ववश ! (हे आत्मवश मुनि !) तेरे चरण-कमल-युगल के चिंतन से मेरा जन्म सदा सफल है ।अनशनादि तप का फल केवल तन का शोषण । अन्य न कोई कार्य सिद्ध होता है उससे ॥ हे स्ववश योगि ! तेरे चरणों के नित चिन्तन से । शान्ति पा रहा सफल हो रहा मेरा जीवन ॥२५१॥ (कलश--रोला)
जिसने निज-रस के विस्ताररूपी पूर द्वारा पापों को सर्व ओर से धो डाला है, जो सहज समतारस से पूर्ण भरा होने से पवित्र है, जो पुराण (सनातन) है, जो स्ववश मन में सदा सुस्थित है (जो सदा मन को - भाव को स्ववश करके विराजमान है) और जो शुद्ध सिद्ध है (जो शुद्ध सिद्धभगवान समान है), ऐसा सहज तेजराशि में मग्न जीव जयवन्त है ।समता रस से पूर्ण भरा होने से पावन । निजरस के विस्तार पूर से सब अघ धोये ॥ स्ववश हृदय में संस्थित जो पुराण पावन है । शुद्धसिद्ध वह तेजराशि जयवंत जीव है ॥२५२॥ (कलश--दोहा)
सर्वज्ञ - वीतराग में और इस स्ववश योगी में कभी कुछ भी भेद नहीं है; तथापि अरे रे ! हम जड़ हैं कि उनमें भेद मानते हैं ।वीतराग सर्वज्ञ अर आत्मवशी गुरुदेव । इनमें कुछ अन्तर नहीं हम जड़ माने भेद ॥२५३॥ (कलश--दोहा)
इस जन्म में स्ववश महामुनि एक ही सदा धन्य है कि जो अनन्य बुद्धिवाला रहता हुआ (निजात्मा के अतिरिक्त अन्य के प्रति लीन न होता हुआ) सर्वकर्मों से बाहर रहता है ।स्ववश महामुनि अनन्यधी और न कोई अन्य । सरव करम से बाह्य जो एकमात्र वे धन्य ॥२५४॥ १दुरघ = दुष्ट अघ; दुष्ट पाप । (अशुभ तथा शुभ कर्म दोनों दुरघ हैं ।) २परम आवश्यक कर्म निश्चय धर्मध्यान तथा निश्चय शुक्ल-ध्यान स्वरूप है -- कि जो ध्यान महा आनन्द के देनेवाले हैं । यह महा आनन्द विकल्पों के महा कोलाहल से विरुद्ध है । |