
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
शुद्धनिश्चयावश्यकप्राप्त्युपायस्वरूपाख्यानमेतत् । इह हि बाह्यषडावश्यकप्रपंचकल्लोलिनीकलकलध्वानश्रवणपराङ्मुख हे शिष्य शुद्ध-निश्चयधर्मशुक्लध्यानात्मकस्वात्माश्रयावश्यकं संसारव्रततिमूललवित्रं यदीच्छसि, समस्त-विकल्पजालविनिर्मुक्त निरंजननिजपरमात्मभावेषु सहजज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्रसहजसुख-प्रमुखेषु सततनिश्चलस्थिरभावं करोषि, तेन हेतुना निश्चयसामायिकगुणे जाते मुमुक्षोर्जीवस्य बाह्यषडावश्यकक्रियाभिः किं जातम्, अप्यनुपादेयं फलमित्यर्थः । अतः परमावश्यकेननिष्क्रियेण अपुनर्भवपुरन्ध्रिकासंभोगहासप्रवीणेन जीवस्य सामायिकचारित्रं सम्पूर्णं भवतीति । तथा चोक्तं श्रीयोगीन्द्रदेवैः - (कलश--मालिनी) यदि चलति कथञ्चिन्मानसं स्वस्वरूपाद् भ्रमति बहिरतस्ते सर्वदोषप्रसङ्गः । तदनवरतमंतर्मग्नसंविग्नचित्तो भव भवसि भवान्तस्थायिधामाधिपस्त्वम् ॥ तथा हि - (कलश--शार्दूलविक्रीडित) यद्येवं चरणं निजात्मनियतं संसारदुःखापहं मुक्ति श्रीललनासमुद्भवसुखस्योच्चैरिदं कारणम् । बुद्ध्वेत्थं समयस्य सारमनघं जानाति यः सर्वदा सोयं त्यक्त बहिःक्रियो मुनिपतिः पापाटवीपावकः ॥२५५॥ यह, शुद्धनिश्चय - आवश्यक की प्राप्ति का जो उपाय उसके स्वरूप का कथन है । बाह्य षट्-आवश्यक प्रपंचरूपी नदी के कोलाहल के श्रवण से (व्यवहार छह-आवश्यक के विस्ताररूपी नदी की कलकलाहट के श्रवण से) पराङ्मुख हे शिष्य ! शुद्धनिश्चय - धर्मध्यान तथा शुद्धनिश्चय - शुक्लध्यान स्वरूप स्वात्माश्रित आवश्यक को, कि जो संसाररूपी लता के मूल को छेदने का कुठार है उसे, यदि तू चाहता है, तो तू समस्त विकल्पजाल रहित निरंजन निज-परमात्मा के भावों में -- सहज ज्ञान, सहज दर्शन, सहज चारित्र और सहज सुख आदि में -- सतत-निश्चल स्थिरभाव करता है; उस हेतु से (उस कारण द्वारा) निश्चय सामायिक गुण उत्पन्न होने पर, मुमुक्षु जीव को बाह्य छह आवश्यक क्रियाओं से क्या उत्पन्न हुआ ? १अनुपादेय फल उत्पन्न हुआ ऐसा अर्थ है । इसलिये अपुनर्भवरूपी (मुक्तिरूपी) स्त्री के संभोग और हास्य प्राप्त करने में प्रवीण ऐसे निष्क्रिय परम-आवश्यक से जीव को सामायिक चारित्र सम्पूर्ण होता है । इसीप्रकार (आचार्यवर) श्री योगीन्द्रदेव ने (अमृताशीति में ६४वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :- (कलश--सोरठा)
यदि किसी प्रकार मन निज स्वरूप से चलित हो और उससे बाहर भटके तो तुझे सर्व दोष का प्रसंग आता है, इसलिये तू सतत अंतर्मग्न और २संविग्न चित्तवाला हो कि जिससे तू मोक्षरूपी स्थायी धाम का अधिपति बनेगा ।प्रगटें दोष अनंत, यदि मन भटके आत्म से । यदि चाहो भव अंत, मगन रहो निज में सदा ॥५४॥ और (कलश--रोला)
यदि इसप्रकार (जीव को) संसार दुःखनाशक ३निजात्मनियत चारित्र हो, तो वह चारित्र मुक्तिश्री रूपी (मुक्ति लक्ष्मीरूपी) सुन्दरी से उत्पन्न होनेवाले सुख का अतिशयरूप से कारण होता है; ऐसा जानकर जो निर्दोष समय के सार को सर्वदा जानता है, ऐसा वह मुनिपति, कि जिसने बाह्य क्रिया छोड़ दी है वह, पापरूपी अटवी को जलानेवाली अग्नि है ।अतिशय कारण मुक्ति सुन्दरी के सम सुख का । निज आतम में नियत चरण भवदुख का नाशक ॥ जो मुनिवर यह जान अनघ निज समयसार को । जाने वे मुनिनाथ पाप अटवी को पावक ॥२५५॥ १अनुपादेय = हेय; पसन्द न करने योग्य; प्रशंसा न करने योग्य । २संविग्न = संवेगी; वैरागी; विरक्त । ३निजात्मनियत = निज आत्मामें लगा हुआ; निज आत्माका अवलम्बन लेता हुआ; निजात्माश्रित; निजआत्मामें एकाग्र । |