
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्र शुद्धोपयोगाभिमुखस्य शिक्षणमुक्तम् । अत्र व्यवहारनयेनापि समतास्तुतिवंदनाप्रत्याख्यानादिषडावश्यकपरिहीणः श्रमण-श्चारित्रपरिभ्रष्ट इति यावत्, शुद्धनिश्चयेन परमाध्यात्मभाषयोक्त निर्विकल्पसमाधिस्वरूपपरमा-वश्यकक्रियापरिहीणश्रमणो निश्चयचारित्रभ्रष्ट इत्यर्थः । पूर्वोक्त स्ववशस्य परमजिनयोगीश्वरस्यनिश्चयावश्यकक्रमेण स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मशुक्लध्यानस्वरूपेण सदावश्यकं करोतु परममुनिरिति । (कलश--मंदाक्रांता) आत्मावश्यं सहजपरमावश्यकं चैकमेकं कुर्यादुच्चैरघकुलहरं निर्वृतेर्मूलभूतम् । सोऽयं नित्यं स्वरसविसरापूर्णपुण्यः पुराणः वाचां दूरं किमपि सहजं शाश्वतं शं प्रयाति ॥२५६॥ (कलश--अनुष्टुभ्) स्ववशस्य मुनीन्द्रस्य स्वात्मचिन्तनमुत्तमम् । इदं चावश्यकं कर्म स्यान्मूलं मुक्ति शर्मणः ॥२५७॥ यहाँ (इस गाथा में) शुद्धोपयोग सम्मुख जीव को शिक्षा कही है । यहाँ (इस लोक में) व्यवहारनय से भी, समता, स्तुति, वन्दना, प्रत्याख्यान आदि छहआवश्यक से रहित श्रमण चारित्र परिभ्रष्ट (चारित्र से सर्वथा भ्रष्ट) है; शुद्धनिश्चय से, परम-अध्यात्मभाषा से जिसे निर्विकल्प - समाधिस्वरूप कहा जाता है ऐसी परम आवश्यक क्रिया से रहित श्रमण निश्चय चारित्रभ्रष्ट है; ऐसा अर्थ है । (इसलिये) स्ववश परमजिनयोगीश्वर के निश्चय - आवश्यक का जो क्रम पहले कहा गया है उस क्रम से (उस विधि से), स्वात्माश्रित ऐसे निश्चय - धर्मध्यान तथा निश्चय - शुक्लध्यान स्वरूप से, परम मुनि सदा आवश्यक करो । (कलश--दोहा)
आत्मा को अवश्य मात्र सहज - परम - आवश्यक एक को ही, कि जो अघसमूह (शुभ-अशुभ) का नाशक है और मुक्ति का मूल (कारण) है उसी को, अतिशयरूप से करना चाहिये । (ऐसा करने से) सदा निज रस के फैलाव से पूर्ण भरा होने के कारण पवित्र और पुराण (सनातन) ऐसा वह आत्मा वाणी से दूर (वचन - अगोचर) ऐसे किसी सहज शाश्वत सुख को प्राप्त करता है ।आवश्यक प्रतिदिन करो अघ नाशक शिव मूल । वचन अगोचर सुख मिले जीवन में भरपूर ॥२५६॥ (कलश--दोहा)
स्ववश मुनीन्द्र को उत्तम स्वात्मचिंतन (निजात्मानुभवन) होता है; और यह (निजात्मानुभवनरूप) आवश्यक कर्म (उसे) मुक्ति-सौख्य का कारण होता है ।
निज आतम का चिन्तवन स्ववश साधु के होय । इस आवश्यक करम से उनको शिवसुख होय ॥२५७॥ |