
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्रावश्यककर्माभावे तपोधनो बहिरात्मा भवतीत्युक्त : । अभेदानुपचाररत्नत्रयात्मकस्वात्मानुष्ठाननियतपरमावश्यककर्मणानवरतसंयुक्त : स्व-वशाभिधानपरमश्रमणः सर्वोत्कृष्टोऽन्तरात्मा, षोडशकषायाणामभावादयं क्षीणमोहपदवीं परिप्राप्य स्थितो महात्मा । असंयतसम्यग्द्रष्टिर्जघन्यांतरात्मा । अनयोर्मध्यमाः सर्वेमध्यमान्तरात्मानः । निश्चयव्यवहारनयद्वयप्रणीतपरमावश्यकक्रियाविहीनो बहिरात्मेति । उक्तं च मार्गप्रकाशे - (कलश--अनुष्टुभ्) बहिरात्मान्तरात्मेति स्यादन्यसमयो द्विधा । बहिरात्मानयोर्देहकरणाद्युदितात्मधीः ॥ (कलश--अनुष्टुभ्) जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदादविरतः सुद्रक् । प्रथमः क्षीणमोहोन्त्यो मध्यमो मध्यमस्तयोः ॥ तथा हि - (कलश--मंदाक्रांता) योगी नित्यं सहजपरमावश्यकर्मप्रयुक्त : संसारोत्थप्रबलसुखदुःखाटवीदूरवर्ती । तस्मात्सोऽयं भवति नितरामन्तरात्मात्मनिष्ठः स्वात्मभ्रष्टो भवति बहिरात्मा बहिस्तत्त्वनिष्ठः ॥२५८॥ यहाँ, आवश्यक कर्म के अभाव में तपोधन बहिरात्मा होता है, ऐसा कहा है । अभेद - अनुपचार - रत्नत्रयात्मक *स्वात्मानुष्ठान में नियत परमावश्यक - कर्म से निरंतर संयुक्त ऐसा जो 'स्ववश' नाम का परम श्रमण वह सर्वोत्कृष्ट अंतरात्मा है; यह महात्मा सोलह कषायों के अभाव द्वारा क्षीणमोह पदवी को प्राप्त करके स्थित है । असंयत सम्यग्दृष्टि जघन्य अन्तरात्मा है । इन दो के मध्य में स्थित सर्व मध्यम अन्तरात्मा हैं । निश्चय और व्यवहार इन दो नयों से प्रणीत जो परम आवश्यक क्रिया उससे जो रहित हो वह बहिरात्मा है । श्री मार्गप्रकाश में भी (दो श्लोकों द्वारा) कहा है कि :- (कलश--रोला)
अन्यसमय (परमात्मा के अतिरिक्त जीव) बहिरात्माऔर अन्तरात्मा ऐसे दो प्रकार के हैं; उनमें बहिरात्मा देह-इन्द्रिय आदि में आत्मबुद्धिवाला होता है ।परमातम से भिन्न सभी जिय बहिरातम अर । अन्तर आतमरूप कहे हैं दो प्रकार के ॥ देह और आतम में धारे अहंबुद्धि जो । वे बहिरातम जीव कहे हैं जिन आगम में ॥५५॥ (कलश--रोला)
अंतरात्मा के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ऐसे (तीन) भेद हैं; अविरत सम्यग्दृष्टि वह प्रथम (जघन्य) अंतरात्मा है, क्षीणमोह वह अन्तिम (उत्कृष्ट) अंतरात्मा है और उन दो के मध्य में स्थित वह मध्यम अंतरात्मा है ।अन्तरात्मा उत्तम मध्यम जघन कहे हैं । क्षीणमोह जिय उत्तम अन्तर आतम ही है ॥ अविरत सम्यग्दृष्टि जीव सब जघन कहे हैं । इन दोनों के बीच सभी मध्यम ही जानो ॥५६॥ और (कलश--रोला)
योगी सदा सहज परम आवश्यक कर्म से युक्त रहता हुआ संसार-जनित प्रबल सुख-दुःखरूपी अटवी से दूरवर्ती होता है इसलिये वह योगी अत्यन्त आत्मनिष्ठ अंतरात्मा है; जो स्वात्मा से भ्रष्ट हो वह बहिःतत्त्वनिष्ठ (बाह्य तत्त्व में लीन) बहिरात्मा है ।योगी सदा परम आवश्यक कर्म युक्त हो । भव सुख दुख अटवी से सदा दूर रहता है ॥ इसीलिए वह आत्मनिष्ठ अन्तर आतम है । स्वात्मतत्त्व से भ्रष्ट आतमा बहिरातम है ॥२५८॥ *स्वात्मानुष्ठान = निज आत्मा का आचरण । (परम आवश्यक कर्म अभेद-अनुपचार-रत्नत्रय स्वरूप स्वात्माचरण में नियम से विद्यमान है अर्थात् वह स्वात्माचरण ही परम आवश्यक कर्म है ।) |