
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
बाह्याभ्यन्तरजल्पनिरासोऽयम् । यस्तु जिनलिंगधारी तपोधनाभासः पुण्यकर्मकांक्षया स्वाध्यायप्रत्याख्यानस्तवनादि-बहिर्जल्पं करोति, अशनशयनयानस्थानादिषु सत्कारादिलाभलोभस्सन्नन्तर्जल्पे मनश्चकारेति स बहिरात्मा जीव इति । स्वात्मध्यानपरायणस्सन् निरवशेषेणान्तर्मुखः प्रशस्ताप्रशस्त-समस्तविकल्पजालकेषु कदाचिदपि न वर्तते अत एव परमतपोधनः साक्षादंतरात्मेति । तथा चोक्तं श्रीमदमृतचंद्रसूरिभिः - (कलश--वसंततिलका) स्वेच्छासमुच्छलदनल्पविकल्पजाला- मेवं व्यतीत्य महतीं नयपक्षकक्षाम् । अन्तर्बहिः समरसैकरसस्वभावं स्वं भावमेकमुपयात्यनुभूतिमात्रम् ॥ तथा हि - (कलश--मंदाक्रांता) मुक्त्वा जल्पं भवभयकरं बाह्यमाभ्यन्तरं च स्मृत्वा नित्यं समरसमयं चिच्चमत्कारमेकम् । ज्ञानज्योतिःप्रकटितनिजाभ्यन्तरांगान्तरात्मा क्षीणे मोहे किमपि परमं तत्त्वमन्तर्ददर्श ॥२५९॥ यह, बाह्य तथा अन्तर जल्प का निरास (निराकरण, खण्डन) है । जो जिनलिंगधारी तपोधनाभास पुण्यकर्म की कांक्षा से स्वाध्याय, प्रत्याख्यान, स्तवन आदि बहिर्जल्प करता है और अशन, शयन, गमन, स्थिति आदि में (खाना, सोना, गमन करना, स्थिर रहना इत्यादि कार्यों में) सत्कारादि की प्राप्ति का लोभी वर्तता हुआ अन्तर्जल्प में मन को लगाता है, वह बहिरात्मा जीव है । निज आत्मा के ध्यान में परायण वर्तता हुआ निरवशेषरूप से (सम्पूर्णरूप से) अन्तर्मुख रहकर (परम तपोधन) प्रशस्त-अप्रशस्त समस्त विकल्पजालों में कभी भी नहीं वर्तता इसीलिये परम तपोधन साक्षात् अन्तरात्मा है । इसीप्रकार (आचार्यदेव ) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि ने (श्री समयसार की आत्मख्याति नामक टीका में ९०वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :- (कलश--हरिगीत)
इसप्रकार जिसमें बहु विकल्पों के जाल अपने आप उठते हैं ऐसी विशाल नय-पक्ष-कक्षा को (नयपक्ष की भूमि को) लाँघकर (तत्त्ववेदी) भीतर और बाहर समता-रसरूपी एक रस ही जिसका स्वभाव है, ऐसे अनुभूतिमात्र एक अपने भाव को (स्वरूप को) प्राप्त होता है ।उठ रहा जिसमें अनन्ते विकल्पों का जाल है । वह वृहद् नयपक्षकक्षा विकट है विकराल है ॥ उल्लंघन कर उसे बुध अनुभूतिमय निजभाव को । हो प्राप्त अन्तर्बाह्य से समरसी एक स्वभाव को ॥५७॥ और (कलश--हरिगीत)
भवभय के करनेवाले, बाह्य तथा अभ्यन्तर जल्प को छोड़कर, समरसमय (समतारसमय) एक चैतन्य-चमत्कार का सदा स्मरण करके, ज्ञान-ज्योति द्वारा जिसने निज अभ्यन्तर अङ्ग प्रगट किया है ऐसा अन्तरात्मा, मोह क्षीण होने पर, किसी (अद्भुत) परम तत्त्व को अन्तर में देखता है ।
संसारभयकर बाह्य-अंतरजल्प तज समरसमयी । चित्चमत्कारी एक आतम को सदा स्मरण कर ॥ ज्ञानज्योति से अरे निज आतमा प्रगटित किया । वह क्षीणमोही जीव देखे परमतत्त्व विशेषत: ॥२५९॥ |