+ स्वात्माश्रित धर्मध्यान और शुक्लध्यान ही उपादेय -
जो धम्मसुक्कझाणम्हि परिणदो सो वि अंतरंगप्पा ।
झाणविहीणो समणो बहिरप्पा इदि विजाणीहि ॥151॥
यो धर्मशुक्लध्यानयोः परिणतः सोप्यन्तरंगात्मा ।
ध्यानविहीनः श्रमणो बहिरात्मेति विजानीहि ॥१५१॥
रे धर्म-शुक्ल-सुध्यान-परिणत अन्तरात्मा जानिये ।
अरु ध्यान विरहित श्रमण को बहिरातमा पहिचानिये ॥१५१॥
अन्वयार्थ : [यः] जो [धर्मशुक्लध्यानयोः] धर्मध्यानऔर शुक्लध्यान में [परिणतः] परिणत है [सः अपि] वह भी [अन्तरंगात्मा] अन्तरात्मा है; [ध्यानविहीनः] ध्यानविहीन [श्रमणः] श्रमण [बहिरात्मा] बहिरात्मा है [इति विजानीहि] ऐसा जान ।
Meaning : He, who is absorbed in righteous and pure concentrations, is the Antaratma; while a saint, who is devoid of such concentration, would be known as the Bahiratma.

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्र स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मशुक्लध्यानद्वितयमेवोपादेयमित्युक्तम् ।
इह हि साक्षादन्तरात्मा भगवान् क्षीणकषायः । तस्य खलु भगवतः क्षीणकषाय-स्य षोडशकषायाणामभावात् दर्शनचारित्रमोहनीयकर्मराजन्ये विलयं गते अत एव सहज-चिद्विलासलक्षणमत्यपूर्वमात्मानं शुद्धनिश्चयधर्मशुक्लध्यानद्वयेन नित्यं ध्यायति । ध्यानाभ्यां विहीनो द्रव्यलिंगधारी द्रव्यश्रमणो बहिरात्मेति हे शिष्य त्वं जानीहि ।
(कलश--वसंततिलका)
कश्चिन्मुनिः सततनिर्मलधर्मशुक्ल-
ध्यानामृते समरसे खलु वर्ततेऽसौ ।
ताभ्यां विहीनमुनिको बहिरात्मकोऽयं
पूर्वोक्त योगिनमहं शरणं प्रपद्ये ॥२६०॥

किं च केवलं शुद्धनिश्चयनयस्वरूपमुच्यते -
(कलश--अनुष्टुभ्)
बहिरात्मान्तरात्मेति विकल्पः कुधियामयम् ।
सुधियां न समस्त्येष संसाररमणीप्रियः ॥२६१॥



यहाँ (इस गाथा में), स्वात्माश्रित निश्चय-धर्मध्यान और निश्चय-शुक्लध्यान यह दो ध्यान ही उपादेय हैं ऐसा कहा है ।

यहाँ (इस लोक में) वास्तव में साक्षात् अन्तरात्मा भगवान क्षीणकषाय हैं । वास्तव में उन भगवान क्षीणकषाय को सोलह कषायों का अभाव होने के कारण दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्मरूपी योद्धाओं के दल नष्ट हुए हैं इसलिये वे (भगवान क्षीणकषाय) *सहजचिद्विलासलक्षण अति - अपूर्व आत्मा को शुद्धनिश्चय-धर्मध्यान और शुद्धनिश्चय-शुक्लध्यान इन दो ध्यानों द्वारा नित्य ध्याते हैं । इन दो ध्यानों रहित द्रव्यलिंगधारी द्रव्यश्रमण बहिरात्मा है ऐसा हे शिष्य ! तू जान ।

(कलश--वीरछन्द)
धरम-शुकलध्यान समरस में जो वर्ते वे सन्त महान ।
उनके चरणकमल की शरणा गहें नित्य हम कर सन्मान ॥
धरम-शुकल से रहित तुच्छ मुनि कर न सके आतमकल्याण ।
संसारी बहिरातम हैं वे उन्हें नहीं निज आतमज्ञान ॥२६०॥
कोई मुनि सतत - निर्मल धर्मशुक्ल - ध्यानामृतरूपी समरस में सचमुच वर्तता है; (वह अन्तरात्मा है;) इन दो ध्यानों से रहित तुच्छ मुनि बहिरात्मा है । मैं पूर्वोक्त (समरसी ) योगी की शरण लेता हूँ ।

और केवल शुद्धनिश्चयनय का स्वरूप कहा जाता है

(कलश--वीरछन्द)
बहिरातम-अन्तरातम के शुद्धातम में उठें विकल्प ।
यह कुबुद्धियों की परिणति है ये मिथ्या संकल्प-विकल्प ॥
ये विकल्प भवरमणी को प्रिय इनका है संसार अनन्त ।
ये सुबुद्धियों को न इष्ट हैं, उनका आया भव का अन्त ॥२६१॥
(शुद्ध आत्मतत्त्व में) बहिरात्मा और अन्तरात्मा ऐसा यह विकल्प कुबुद्धियों को होता है; संसाररूपी रमणी को प्रिय ऐसा यह विकल्प सुबुद्धियों को नहीं होता ।

*सहजचिद्विलासलक्षण = जिसका लक्षण (चिह्न / स्वरूप) सहज चैतन्य का विलास है ऐसे