
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
परमवीतरागचारित्रस्थितस्य परमतपोधनस्य स्वरूपमत्रोक्तम् । यो हि विमुक्तैहिकव्यापारः साक्षादपुनर्भवकांक्षी महामुमुक्षुः परित्यक्त सकलेन्द्रिय-व्यापारत्वान्निश्चयप्रतिक्रमणादिसत्क्रियां कुर्वन्नास्ते, तेन कारणेन स्वस्वरूपविश्रान्तिलक्षणे परमवीतरागचारित्रे स परमतपोधनस्तिष्ठति इति । (कलश--मंदाक्रांता) आत्मा तिष्ठत्यतुलमहिमा नष्टद्रक्शीलमोहोयः संसारोद्भवसुखकरं कर्म मुक्त्वा विमुक्तेः । मूले शीले मलविरहिते सोऽयमाचारराशिः तं वंदेऽहं समरससुधासिन्धुराकाशशांकम् ॥२६२॥ यहाँ परम वीतराग चारित्र में स्थित परम तपोधन का स्वरूप कहा है । जिसने ऐहिक व्यापार (सांसारिक कार्य) छोड़ दिया है ऐसा जो साक्षात् अपुनर्भव (मोक्ष) का अभिलाषी महामुमुक्षु सकल इन्द्रिय व्यापार को छोड़ा होने से निश्चय प्रतिक्रमणादि सत्क्रिया को करता हुआ स्थित है (निरन्तर करता है), वह परम तपोधन उस कारण से निज स्वरूप विश्रान्ति लक्षण परमवीतराग - चारित्र में स्थित है (वह परम श्रमण, निश्चय प्रतिक्रमणादि निश्चय चारित्र में स्थित होने के कारण, जिसका लक्षण निज स्वरूप में विश्रांति है ऐसे परम वीतराग चारित्र में स्थित है) । (कलश--रोला)
दर्शनमोह और चारित्रमोह जिसके नष्ट हुए हैं ऐसा जो अतुल महिमावाला आत्मा संसार जनित सुख के कारणभूत कर्म को छोड़कर मुक्ति का मूल ऐसे मल-रहित चारित्र में स्थित है, वह आत्मा चारित्र का पुंज है । समरसरूपी सुधा के सागर को उछालने में पूर्ण-चन्द्र समान उस आत्मा को मैं वन्दन करता हूँ ।
दर्शन अर चारित्र मोह का नाश किया है । भवसुखकारक कर्म छोड़ संन्यास लिया है ॥ मुक्तिमूल मल रहित शील-संयम के धारक । समरस-अमृतसिन्धु चन्द्र को नमन करूँ मैं ॥२६२॥ |