
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
इह हि केवलज्ञानकेवलदर्शनयोर्युगपद्वर्तनं द्रष्टान्तमुखेनोक्तम् । अत्र द्रष्टान्तपक्षे क्वचित्काले बलाहकप्रक्षोभाभावे विद्यमाने नभस्स्थलस्य मध्यगतस्यसहस्रकिरणस्य प्रकाशतापौ यथा युगपद् वर्तेते, तथैव च भगवतः परमेश्वरस्य तीर्थाधिनाथस्य जगत्त्रयकालत्रयवर्तिषु स्थावरजंगमद्रव्यगुणपर्यायात्मकेषु ज्ञेयेषु सकलविमलकेवलज्ञान-केवलदर्शने च युगपद् वर्तेते । किं च संसारिणां दर्शनपूर्वमेव ज्ञानं भवति इति । तथा चोक्तं प्रवचनसारे - णाणं अत्थंतगयं लोयालोएसु वित्थडा दिट्ठी । णट्ठमणिट्ठं सव्वं इट्ठं पुण जं तु तं लद्धं ॥ अन्यच्च - दंसणपुव्वं णाणं छदमत्थाणं ण दोण्णि उवओग्गा । जुगवं जह्मा केवलिणाहे जुगवं तु ते दोवि ॥ तथा हि - (कलश--स्रग्धरा) वर्तेते ज्ञानद्रष्टी भगवति सततं धर्मतीर्थाधिनाथे सर्वज्ञेऽस्मिन् समंतात् युगपदसद्रशे विश्वलोकैकनाथे । एतावुष्णप्रकाशौ पुनरपि जगतां लोचनं जायतेऽस्मिन् तेजोराशौ दिनेशे हतनिखिलतमस्तोमके ते तथैवम् ॥२७३॥ (कलश--वसंततिलका) सद्बोधपोतमधिरुह्य भवाम्बुराशि- मुल्लंघ्य शाश्वतपुरी सहसा त्वयाप्ता । तामेव तेन जिननाथपथाधुनाहं याम्यन्यदस्ति शरणं किमिहोत्तमानाम् ॥२७४॥ (कलश--मंदाक्रांता) एको देवः स जयति जिनः केवलज्ञानभानुः कामं कान्तिं वदनकमले संतनोत्येव कांचित् । मुक्ते स्तस्याः समरसमयानंगसौख्यप्रदायाः को नालं शं दिशतुमनिशं प्रेमभूमेः प्रियायाः ॥२७५॥ (कलश--अनुष्टुभ्) जिनेन्द्रो मुक्ति कामिन्याः मुखपद्मे जगाम सः । अलिलीलां पुनः काममनङ्गसुखमद्वयम् ॥२७६॥ यहाँ वास्तव में केवलज्ञान और केवलदर्शन का युगपद् वर्तना दृष्टान्त द्वारा कहा है । यहाँ दृष्टान्त पक्ष से किसी समय बादलों की बाधा न हो तब आकाश के मध्य में स्थित सूर्य के प्रकाश और ताप जिसप्रकार युगपद् वर्तते हैं, उसीप्रकार भगवान परमेश्वर तीर्थाधिनाथ को त्रिलोकवर्ती और त्रिकालवर्ती, स्थावर - जङ्गम द्रव्य-गुण-पर्यायात्मक ज्ञेयों में सकल-विमल (सर्वथा निर्मल) केवलज्ञान और केवलदर्शन युगपद् वर्तते हैं । और (विशेष इतना समझना कि), संसारियों को दर्शनपूर्वक ही ज्ञान होता है (प्रथम दर्शन और फिर ज्ञान होता है, युगपद् नहीं होते) । इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत) श्री प्रवचनसार में (६१वीं गाथा द्वारा) कहा है कि : (कलश)
ज्ञान पदार्थों के पार को प्राप्त है और दर्शन लोकालोक में विस्तृत है; सर्व अनिष्ट नष्ट हुआ है और जो इष्ट है वह सब प्राप्त हुआ है ।अर्थान्तगत है ज्ञान लोकालोक विस्तृत दृष्टि है । हैं नष्ट सर्व अनिष्ट एवं इष्ट सब उपलब्ध हैं॥६१॥ और दूसरा भी (श्री नेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेव विरचित बृहद्द्रव्यसंग्रह में ४४वीं गाथा द्वारा) कहा है कि : (कलश)
छद्मस्थोंको दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है (पहले दर्शन और फिर ज्ञान होता है), क्योंकि उनको दोनों उपयोग युगपद् नहीं होते; केवलीनाथ को वे दोनों युगपद् होते हैं ।जिनवर कहें छद्मस्थ के हो ज्ञान दर्शनपूर्वक । पर केवली के साथ हों दोनों सदा यह जानिये ॥६२॥ और (कलश)
जो धर्मतीर्थ के अधिनाथ (नायक) हैं, जो असदृश हैं (जिनके समान अन्य कोई नहीं है) और जो सकल लोक के एक नाथ हैं ऐसे इन सर्वज्ञ भगवान में निरन्तर सर्वतः ज्ञान और दर्शन युगपद् वर्तते हैं । जिसने समस्त तिमिर समूह का नाश किया है ऐसे इस तेजराशिरूप सूर्य में जिसप्रकार यह उष्णता और प्रकाश (युगपद्) वर्तते हैं और जगत के जीवों को नेत्र प्राप्त होते हैं (सूर्य के निमित्त से जीवों के नेत्र देखने लगते हैं), उसीप्रकार ज्ञान और दर्शन (युगपद्) होते हैं (उसीप्रकार सर्वज्ञ भगवान को ज्ञान और दर्शन एक साथ होते हैं और सर्वज्ञ भगवान के निमित्त से जगत के जीवों को ज्ञान प्रगट होता है ) ।अज्ञानतम को सूर्यसम सम्पूर्ण जग के अधिपति । हे शान्तिसागर वीतरागी अनूपम सर्वज्ञ जिन ॥ संताप और प्रकाश युगपत् सूर्य में हों जिसतरह । केवली के ज्ञान-दर्शन साथ हों बस उसतरह ॥२७३॥ (कलश)
(हे जिननाथ !) सद्ज्ञानरूपी नौका में आरोहण करके भवसागर को लाँघकर, तू शीघ्रता से शाश्वतपुरी में पहुँच गया । अब मैं जिननाथ के उस मार्ग से (जिस मार्ग से जिननाथ गये उसी मार्ग से) उसी शाश्वतपुरी में जाता हूँ; (क्योंकि) इसलोक में उत्तम पुरुषों को (उस मार्ग के अतिरिक्त) अन्य क्या शरण है ?सद्बोधरूपी नाव से ज्यों भवोदधि को पारकर । शीघ्रता से शिवपुरी में आप पहुँचे नाथवर ॥ मैं आ रहा हूँ उसी पथ से मुक्त होने के लिए । अन्य कोई शरण जग में दिखाई देता नहीं ॥२७४॥ (कलश)
केवलज्ञानभानु (केवलज्ञानरूपी प्रकाश को धारण करनेवाले सूर्य) ऐसे वे एक जिनदेव ही जयवन्त हैं । वे जिनदेव समरसमय अनंग (अशरीरी,अतीन्द्रिय) सौख्य की देनेवाली ऐसी उस मुक्ति के मुखकमल पर वास्तव में किसी अवर्णनीय कान्ति को फैलाते हैं; (क्योंकि) कौन (अपनी) स्नेहपात्र प्रिया को निरन्तर सुखोत्पत्ति का कारण नहीं होता ?आप केवलभानु जिन इस जगत में जयवंत हैं । समरसमयी निर्देह सुखदा शिवप्रिया के कंत हैं ॥ रे शिवप्रिया के मुखकमल पर कांति फैलाते सदा । सुख नहीं दे निजप्रिया को है कौन ऐसा जगत में ॥२७५॥ (कलश--दोहा)
उन जिनेन्द्रदेव ने मुक्ति-कामिनी के मुख-कमल के प्रति भ्रमरलीला को धारण किया (वे उसमें भ्रमर की भाँति लीन हुए) और वास्तव में अद्वितीय अनंग (आत्मिक) सुख को प्राप्त किया ।
अरे भ्रमर की भांति तुम, शिवकामिनि लवलीन । अद्वितीय आत्मीक सुख, पाया जिन अमलीन ॥२७६॥ |