
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
आत्मनः स्वपरप्रकाशकत्वविरोधोपन्यासोऽयम् । इह हि तावदात्मनः स्वपरप्रकाशकत्वं कथमिति चेत् । ज्ञानदर्शनादिविशेषगुणसमृद्धोह्यात्मा, तस्य ज्ञानं शुद्धात्मप्रकाशकासमर्थत्वात् परप्रकाशकमेव, यद्येवं द्रष्टिर्निरंकुशा केवल-मभ्यन्तरे ह्यात्मानं प्रकाशयति चेत् अनेन विधिना स्वपरप्रकाशको ह्यात्मेति हंहो जडमतेप्राथमिकशिष्य, दर्शनशुद्धेरभावात् एवं मन्यसे, न खलु जडस्त्वत्तस्सकाशादपरः कश्चिज्जनः ।अथ ह्यविरुद्धा स्याद्वादविद्यादेवता समभ्यर्चनीया सद्भिरनवरतम् । तत्रैकान्ततो ज्ञानस्य परप्रकाशकत्वं न समस्ति; न केवलं स्यान्मते दर्शनमपि शुद्धात्मानं पश्यति । दर्शनज्ञान-प्रभृत्यनेकधर्माणामाधारो ह्यात्मा । व्यवहारपक्षेऽपि केवलं परप्रकाशकस्य ज्ञानस्य नचात्मसम्बन्धः सदा बहिरवस्थितत्वात्, आत्मप्रतिपत्तेरभावात् न सर्वगतत्वम्;अतःकारणादिदं ज्ञानं न भवति, मृगतृष्णाजलवत् प्रतिभासमात्रमेव । दर्शनपक्षेऽपि तथा नकेवलमभ्यन्तरप्रतिपत्तिकारणं दर्शनं भवति । सदैव सर्वं पश्यति हि चक्षुः स्वस्याभ्यन्तरस्थितांकनीनिकां न पश्यत्येव । अतः स्वपरप्रकाशकत्वं ज्ञानदर्शनयोरविरुद्धमेव । ततःस्वपरप्रकाशको ह्यात्मा ज्ञानदर्शनलक्षण इति । तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः - (कलश--स्रग्धरा) जानन्नप्येष विश्वं युगपदपि भवद्भाविभूतं समस्तं मोहाभावाद्यदात्मा परिणमति परं नैव निर्लूनकर्मा । तेनास्ते मुक्त एव प्रसभविकसितज्ञप्तिविस्तारपीत- ज्ञेयाकारां त्रिलोकीं पृथगपृथगथ द्योतयन् ज्ञानमूर्तिः ॥ तथा हि - (कलश--मंदाक्रांता) ज्ञानं तावत् सहजपरमात्मानमेकं विदित्वा लोकालोकौ प्रकटयति वा तद्गतं ज्ञेयजालम् । द्रष्टिः साक्षात् स्वपरविषया क्षायिकी नित्य शुद्धाताभ्यां देवः स्वपरविषयं बोधति ज्ञेयराशिम् ॥२७७॥ यह, आत्मा के स्व-पर प्रकाशकपने सम्बन्धी विरोध-कथन है । प्रथम तो, आत्मा को स्व-पर प्रकाशकपना किस प्रकार है ? (उस पर विचार किया जाता है ।) 'आत्मा ज्ञानदर्शनादि विशेष गुणों से समृद्ध है; उसका ज्ञान शुद्ध आत्मा को प्रकाशित करने में असमर्थ होने से पर प्रकाशक ही है; इसप्रकार निरंकुश दर्शन भी केवल अभ्यन्तर में आत्मा को प्रकाशित करता है (अर्थात् स्व-प्रकाशक ही है) । इस विधि से आत्मा स्व-पर प्रकाशक है ।' -- इसप्रकार हे जड़मति प्राथमिक शिष्य ! यदि तू दर्शनशुद्धि के अभाव के कारण मानता हो, तो वास्तव में तुझसे अन्य कोई पुरुष जड़ (मूर्ख ) नहीं है । इसलिये अविरुद्ध ऐसी स्याद्वाद विद्यारूपी देवी सज्जनों द्वारा सम्यक् प्रकार से निरन्तर आराधना करने योग्य है । वहाँ (स्याद्वादमत में), एकान्त से ज्ञान को पर प्रकाशकपना ही नहीं है; स्याद्वादमत में दर्शन भी केवल शुद्धात्मा को ही नहीं देखता (मात्र स्व प्रकाशक ही नहीं है) । आत्मा दर्शन, ज्ञान आदि अनेक धर्मों काआधार है । (वहाँ) व्यवहारपक्ष से भी ज्ञान केवल पर-प्रकाशक हो तो, सदा बाह्य-स्थितपने के कारण, (ज्ञान को) आत्मा के साथ सम्बन्ध नहीं रहेगा और (इसलिये) १आत्मप्रतिपत्ति के अभाव के कारण सर्वगतपना (भी) नहीं बनेगा । इसकारण से, यह ज्ञान होगा ही नहीं (ज्ञान का अस्तित्व ही नहीं होगा), मृगतृष्णा के जल की भाँति आभासमात्र ही होगा । इसीप्रकार दर्शनपक्ष में भी, दर्शनकेवल २अभ्यन्तर प्रतिपत्ति का ही कारण नहीं है, (सर्व प्रकाशन का कारण है); (क्योंकि) चक्षु सदैव सर्व को देखता है, अपने अभ्यन्तर में स्थित कनीनिका को नहीं देखता (इसलिये चक्षु की बात से ऐसा समझमें आता है कि दर्शन अभ्यन्तर को देखे और बाह्यस्थित पदार्थों को न देखे ऐसा कोई नियम घटित नहीं होता) । इससे, ज्ञान और दर्शन को (दोनों को) स्व-पर प्रकाशकपना अविरुद्ध ही है । इसलिये (इसप्रकार) ज्ञान-दर्शन लक्षणवाला आत्मा स्व-पर प्रकाशक है । इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि ने (श्री प्रवचनसार की टीका में चौथे श्लोक द्वारा) कहा है कि :- (कलश--मनहरण कवित्त)
जिसने कर्मों को छेद डाला है ऐसा यह आत्मा भूत, वर्तमान और भावि समस्त विश्व को (तीनों काल की पर्यायों सहित समस्त पदार्थों को) युगपद् जानता होने पर भी मोह के अभाव के कारण पररूप से परिणमित नहीं होता, इसलिये अब, जिसके समस्त ज्ञेयाकारों को अत्यन्त विकसित ज्ञप्ति के विस्तार द्वारा स्वयं पी गया है ऐसे तीनों लोक के पदार्थों को पृथक् और अपृथक् प्रकाशित करता हुआ वह ज्ञानमूर्ति मुक्त ही रहता है ।जिसने किये हैं निर्मूल घातिकर्म सब । अनंत सुख वीर्य दर्श ज्ञान धारी आतमा ॥ भूत भावी वर्तमान पर्याय युक्त सब । द्रव्य जाने एक ही समय में शुद्धातमा ॥ मोह का अभाव पररूप परिणमें नहीं । सभी ज्ञेय पीके बैठा ज्ञानमूर्ति आतमा ॥ पृथक्-पृथक् सब जानते हुए भी ये । सदा मुक्त रहें अरहंत परमातमा ॥६३॥ और (कलश--मनहरण कवित्त)
ज्ञान एक सहज परमात्मा को जानकर लोकालोक को अर्थात् लोकालोक सम्बन्धी (समस्त) ज्ञेय-समूह को प्रगट करता है (जानता है) । नित्य-शुद्ध ऐसा क्षायिक दर्शन (भी) साक्षात् स्व-पर विषयक है (वह भी स्व-पर को साक्षात् प्रकाशित करता है) । उन दोनों (ज्ञान तथा दर्शन) द्वारा आत्मदेव स्व-पर सम्बन्धी ज्ञेयराशि को जानता है (आत्मदेव स्वपर समस्त प्रकाश्य पदार्थों को प्रकाशित करता है ) ।ज्ञान इक सहज परमातमा को जानकर । लोकालोक ज्ञेय के समूह को है जानता । ज्ञान के समान दर्शन भी तो क्षायिक है । वह भी स्वपर को है साक्षात् जानता ॥ ज्ञान-दर्शन द्वारा भगवान आतमा । स्वपर सभी ज्ञेयराशि को है जानता ॥ ऐसे वीतरागी सर्वज्ञ परमातमा । स्वपरप्रकाशी निज भाव को प्रकाशता ॥२७७॥ १ – आत्म प्रतिपत्ति = आत्मा का ज्ञान; स्व को जानना सो । २ – अभ्यन्तर प्रतिपत्ति = अन्तरंग का प्रकाशन; स्व को प्रकाशना सो । |