
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
केवलबोधस्वरूपाख्यानमेतत् । षण्णां द्रव्याणां मध्ये मूर्तत्वं पुद्गलस्य पंचानाम् अमूर्तत्वम्; चेतनत्वं जीवस्यैवपंचानामचेतनत्वम् । मूर्तामूर्तचेतनाचेतनस्वद्रव्यादिकमशेषं त्रिकालविषयम् अनवरतं पश्यतोभगवतः श्रीमदर्हत्परमेश्वरस्य क्रमकरणव्यवधानापोढं चातीन्द्रियं च सकलविमलकेवलज्ञानं सकलप्रत्यक्षं भवतीति । तथा चोक्तं प्रवचनसारे - जं पेच्छदो अमुत्तं मुत्तेसु अदिंदियं च पच्छण्णं । सयलं सगं च इदरं तं णाणं हवदि पच्चक्खं ॥ तथा हि - (कलश--मंदाक्रांता) सम्यग्वर्ती त्रिभुवनगुरुः शाश्वतानन्तधामा लोकालोकौ स्वपरमखिलं चेतनाचेतनं च । तार्तीयं यन्नयनमपरं केवलज्ञानसंज्ञं तेनैवायं विदितमहिमा तीर्थनाथो जिनेन्द्रः ॥२८३॥ यह, केवलज्ञान के स्वरूप का कथन है । छह द्रव्यों में पुद्गल को मूर्तपना है, (शेष) पाँच को अमूर्तपना है; जीव को ही चेतनपना है, (शेष) पाँच को अचेतनपना है । त्रिकाल सम्बन्धी मूर्त-अमूर्त, चेतन-अचेतन स्व-द्रव्यादि अशेष को (स्व तथा पर समस्त द्रव्यों को) निरन्तर देखनेवाले भगवान श्रीमद् अर्हत् परमेश्वर का जो क्रम, इन्द्रिय और *व्यवधान रहित, अतीन्द्रिय सकल-विमल (सर्वथा-निर्मल) केवलज्ञान वह सकल-प्रत्यक्ष है । इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत) श्री प्रवचनसार में कहा है कि :- (कलश--हरिगीत)
देखनेवाले का जो ज्ञान अमूर्त को, मूर्त पदार्थों में भी अतीन्द्रिय को,और प्रच्छन्न को इन सबको - स्व को तथा पर को - देखता है, वह ज्ञान प्रत्यक्ष है ।अमूर्त को अर मूर्त में भी अतीन्द्रिय प्रच्छन्न को । स्व-पर को सर्वार्थ को जाने वही प्रत्यक्ष है ॥५४॥ और (कलश--हरिगीत)
केवलज्ञान नाम का जो तीसरा उत्कृष्ट नेत्र उसी से जिनकी प्रसिद्ध महिमा है, जो तीन लोक के गुरु हैं और शाश्वत अनन्त जिनका *धाम है, ऐसे यह तीर्थनाथ जिनेन्द्र लोकालोक को अर्थात् स्व-पर ऐसे समस्त चेतन-अचेतन पदार्थों को सम्यक् प्रकार से (बराबर) जानते हैं ।अनंत शाश्वतधाम त्रिभुवनगुरु लोकालोक के । रे स्व-पर चेतन-अचेतन सर्वार्थ जाने पूर्णत: ॥ अरे केवलज्ञान जिनका तीसरा जो नेत्र है । विदित महिमा उसी से वे तीर्थनाथ जिनेन्द्र हैं ॥२८३॥ *धाम = (१) भव्यता; (२) तेज; (३) बल । |