+ केवलदर्शन के अभाव में सर्वज्ञपना नहीं -
पुव्वुत्तसयलदव्वं णाणागुणपज्जएण संजुत्तं ।
जो ण य पेच्छइ सम्मं परोक्खदिट्ठी हवे तस्स ॥168॥
पूर्वोक्त सकलद्रव्यं नानागुणपर्यायेण संयुक्तम् ।
यो न च पश्यति सम्यक् परोक्षद्रष्टिर्भवेत्तस्य ॥१६८॥
जो विविध गुण पर्याय से संयुक्त सारी सृष्टि है ।
देखे न जो सम्यक् प्रकार, परोक्ष रे वह दृष्टि है ॥१६८॥
अन्वयार्थ : [नानागुणपर्यायेण संयुक्तम्] विविध गुणों और पर्यायों से संयुक्त [पूर्वोक्तसकलद्रव्यं] पूर्वोक्त समस्त द्रव्यों को [यः] जो [सम्यक्] सम्यक् प्रकारसे (बराबर) [न च पश्यति] नहीं देखता, [तस्य] उसे [परोक्षदृष्टिः भवेत्] परोक्ष दर्शन है ।
Meaning : He who does not conate all the aforesaid substances together with their various attributes and modifications simultaneously ; (is said) to have indirect conation

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्र केवलद्रष्टेरभावात् सकलज्ञत्वं न समस्तीत्युक्तम् ।
पूर्वसूत्रोपात्तमूर्तादिद्रव्यं समस्तगुणपर्यायात्मकं, मूर्तस्य मूर्तगुणाः, अचेतनस्याचेतन-गुणाः, अमूर्तस्यामूर्तगुणाः, चेतनस्य चेतनगुणाः, षड्ढानिवृद्धिरूपाः सूक्ष्माः परमागमप्रामाण्यादभ्युपगम्याः अर्थपर्यायाः षण्णां द्रव्याणां साधारणाः, नरनारकादिव्यंजनपर्याया जीवानां पंचसंसारप्रपंचानां, पुद्गलानां स्थूलस्थूलादिस्कन्धपर्यायाः, चतुर्णां धर्मादीनां शुद्धपर्यायाश्चेति, एभिः संयुक्तं तद्द्रव्यजालं यः खलु न पश्यति, तस्य संसारिणामिव परोक्षद्रष्टिरिति ।
(वसंततिलका)
यो नैव पश्यति जगत्त्रयमेकदैव
कालत्रयं च तरसा सकलज्ञमानी ।
प्रत्यक्षद्रष्टिरतुला न हि तस्य नित्यं
सर्वज्ञता कथमिहास्य जडात्मनः स्यात् ॥२८४॥



यहाँ, केवलदर्शन के अभाव में (प्रत्यक्ष दर्शन के अभाव में) सर्वज्ञपना नहीं होता ऐसा कहा है ।

समस्त गुणों और पर्यायों से संयुक्त पूर्वसूत्रोक्त (१६७वीं गाथा में कहे हुए) मूर्तादिद्रव्यों को जो नहीं देखता; - अर्थात्
  • मूर्त द्रव्य के मूर्त गुण होते हैं,
  • अचेतन के अचेतन गुण होते हैं,
  • अमूर्त के अमूर्त गुण होते हैं,
  • चेतन के चेतन गुण होते हैं;
  • षट् (छह प्रकार की) हानि-वृद्धिरूप, सूक्ष्म, परमागम के प्रमाण से स्वीकार - करने योग्य अर्थ-पर्यायें छह द्रव्यों को साधारण हैं,
  • नर-नारकादि व्यंजन-पर्यायें पांच प्रकार की *संसार-प्रपंचवाले जीवों को होती हैं,
  • पुद्गलों को स्थूल-स्थूल आदि स्कन्ध-पर्यायें होती हैं और
  • धर्मादि चार द्रव्यों को शुद्ध-पर्यायें होती हैं;
इन गुणपर्यायों से संयुक्त ऐसे उस द्रव्य-समूह को जो वास्तव में नहीं देखता, उसे (भले वह सर्वज्ञता के अभिमान से दग्ध हो तथापि) संसारियों की भाँति परोक्ष दृष्टि है ।

(कलश--हरिगीत)
'मैं स्वयं सर्वज्ञ हूँ' - इस मान्यता से ग्रस्त जो ।
पर नहीं देखे जगतत्रय त्रिकाल को इक समय में ॥
प्रत्यक्ष दर्शन है नहीं ज्ञानाभिमानी जीव को ।
उस जड़ात्मन को जगत में सर्वज्ञता हो किस तरह? ॥२८४॥
सर्वज्ञता के अभिमानवाला जो जीव शीघ्र एक ही काल में तीन जगत को तथा तीन काल को नहीं देखता, उसे सदा (कदापि) अतुल प्रत्यक्ष दर्शन नहीं है; उस जड़ आत्मा को सर्वज्ञता किस प्रकार होगी ?

*संसारप्रपंच = संसार-विस्तार (संसारविस्तार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव - ऐसे पाँच परावर्तनरूप है ।)