
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्र केवलद्रष्टेरभावात् सकलज्ञत्वं न समस्तीत्युक्तम् । पूर्वसूत्रोपात्तमूर्तादिद्रव्यं समस्तगुणपर्यायात्मकं, मूर्तस्य मूर्तगुणाः, अचेतनस्याचेतन-गुणाः, अमूर्तस्यामूर्तगुणाः, चेतनस्य चेतनगुणाः, षड्ढानिवृद्धिरूपाः सूक्ष्माः परमागमप्रामाण्यादभ्युपगम्याः अर्थपर्यायाः षण्णां द्रव्याणां साधारणाः, नरनारकादिव्यंजनपर्याया जीवानां पंचसंसारप्रपंचानां, पुद्गलानां स्थूलस्थूलादिस्कन्धपर्यायाः, चतुर्णां धर्मादीनां शुद्धपर्यायाश्चेति, एभिः संयुक्तं तद्द्रव्यजालं यः खलु न पश्यति, तस्य संसारिणामिव परोक्षद्रष्टिरिति । (वसंततिलका) यो नैव पश्यति जगत्त्रयमेकदैव कालत्रयं च तरसा सकलज्ञमानी । प्रत्यक्षद्रष्टिरतुला न हि तस्य नित्यं सर्वज्ञता कथमिहास्य जडात्मनः स्यात् ॥२८४॥ यहाँ, केवलदर्शन के अभाव में (प्रत्यक्ष दर्शन के अभाव में) सर्वज्ञपना नहीं होता ऐसा कहा है । समस्त गुणों और पर्यायों से संयुक्त पूर्वसूत्रोक्त (१६७वीं गाथा में कहे हुए) मूर्तादिद्रव्यों को जो नहीं देखता; - अर्थात्
(कलश--हरिगीत)
सर्वज्ञता के अभिमानवाला जो जीव शीघ्र एक ही काल में तीन जगत को तथा तीन काल को नहीं देखता, उसे सदा (कदापि) अतुल प्रत्यक्ष दर्शन नहीं है; उस जड़ आत्मा को सर्वज्ञता किस प्रकार होगी ?'मैं स्वयं सर्वज्ञ हूँ' - इस मान्यता से ग्रस्त जो । पर नहीं देखे जगतत्रय त्रिकाल को इक समय में ॥ प्रत्यक्ष दर्शन है नहीं ज्ञानाभिमानी जीव को । उस जड़ात्मन को जगत में सर्वज्ञता हो किस तरह? ॥२८४॥ *संसारप्रपंच = संसार-विस्तार (संसारविस्तार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव - ऐसे पाँच परावर्तनरूप है ।) |