+ व्यवहारनय की प्रगटता -
लोयालोयं जाणइ अप्पाणं णेव केवली भगवं ।
जइ कोइ भणइ एवं तस्स य किं दूसणं होइ ॥169॥
लोकालोकौ जानात्यात्मानं नैव केवली भगवान् ।
यदि कोऽपि भणति एवं तस्य च किं दूषणं भवति ॥१६९॥
'भगवान केवलि लोक और अलोक जाने, आत्मना' ।
यदि कोई यों कहता अरे उसमें कहो है दोष क्या ? ॥१६९॥
अन्वयार्थ : [केवली भगवान्] (व्यवहार से) केवली भगवान [लोकालोकौ] लोकालोक को [जानाति] जानते हैं, [न एव आत्मानम्] आत्मा को नहीं - [एवं] ऐसा [यदि] यदि [कः अपि भणति] कोई कहे तो [तस्य चकिं दूषणं भवति] उसे क्या दोष है ?
Meaning : (From the practical point of view) an omniscient Lord knows the Universe and the Non-universe ; but not the soul. If any one argues like that, what blame can be laid upon him ?

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
व्यवहारनयप्रादुर्भावकथनमिदम् ।
सकलविमलकेवलज्ञानत्रितयलोचनो भगवान् अपुनर्भवकमनीयकामिनीजीवितेशःषड्द्रव्यसंकीर्णलोकत्रयं शुद्धाकाशमात्रालोकं च जानाति, पराश्रितो व्यवहार इति मानात्व्यवहारेण व्यवहारप्रधानत्वात्, निरुपरागशुद्धात्मस्वरूपं नैव जानाति, यदि व्यवहारनयविवक्षया कोपि जिननाथतत्त्वविचारलब्धः (दक्षः) कदाचिदेवं वक्ति चेत्, तस्य न खलु दूषणमिति ।
तथा चोक्तं श्रीसमन्तभद्रस्वामिभिः -
(कलश--अपरवक्त्र)
स्थितिजनननिरोधलक्षणं
चरमचरं च जगत्प्रतिक्षणम् ।
इति जिन सकलज्ञलांछनं
वचनमिदं वदतांवरस्य ते ॥

तथा हि -
(कलश--वसंततिलका)
जानाति लोकमखिलं खलु तीर्थनाथः
स्वात्मानमेकमनघं निजसौख्यनिष्ठम् ।
नो वेत्ति सोऽयमिति तं व्यवहारमार्गाद्
वक्त ीति कोऽपि मुनिपो न च तस्य दोषः ॥२८५॥



यह, व्यवहारनय की प्रगटता से कथन है ।

'पराश्रितो व्यवहारः (व्यवहारनय पराश्रित है )' ऐसे (शास्त्र के) अभिप्राय के कारण, व्यवहार से व्यवहारनय की प्रधानता द्वारा (व्यवहार से व्यवहारनय को प्रधान करके), 'सकल-विमल केवलज्ञान जिनका तीसरा लोचन है और अपुनर्भवरूपी सुन्दर कामिनी के जो जीवितेश हैं (मुक्तिसुन्दरी के जो प्राणनाथ हैं) ऐसे भगवान छह द्रव्यों से व्याप्त तीन लोक को और शुद्ध-आकाशमात्र अलोक को जानते हैं, निरुपराग (निर्विकार) शुद्ध-आत्मस्वरूप को नहीं ही जानते' -- ऐसा यदि व्यवहारनय की विवक्षा से कोई जिननाथ के तत्त्वविचार में निपुण जीव (जिनदेव ने कहे हुए तत्त्व के विचार में प्रवीण जीव) कदाचित् कहे, तो उसे वास्तव में दूषण नहीं है ।

इसीप्रकार (आचार्यवर) श्री समन्तभद्रस्वामी ने (बृहत्स्वयंभूस्तोत्र में भी मुनिसुव्रतभगवान की स्तुति करते हुए ११४वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--हरिगीत)
उत्पादव्ययध्रुवयुत जगत यह वचन हे वदताम्बर: ।
सर्वज्ञता का चिह्न है हे सर्वदर्शि जिनेश्वर: ॥६७॥
हे जिनेन्द्र ! तू वक्ताओं में श्रेष्ठ है; 'चराचर (जङ्गम तथा स्थावर) जगत प्रतिक्षण (प्रत्येक समय में) उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य लक्षणवाला है' ऐसा यह तेरा वचन (तेरी) सर्वज्ञता का चिह्न है ।

और

(कलश--हरिगीत)
रे केवली भगवान जाने पूर्ण लोक-अलोक को ।
पर अनघ निजसुखलीन स्वातम को नहीं वे जानते ॥
यदि कोई मुनिवर यों कहे व्यवहार से इस लोक में ।
उन्हें कोई दोष न बोलो उन्हें क्या दोष है ॥२८५॥
तीर्थनाथ वास्तव में समस्त लोक को जानते हैं और वे एक,अनघ (निर्दोष ), निज-सौख्यनिष्ठ (निज सुख में लीन) स्वात्मा को नहीं जानते -- ऐसा कोई मुनिवर व्यवहारमार्ग से कहे तो उसे दोष नहीं है ।