
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
शुद्धजीवस्य स्वभावगतिप्राप्त्युपायोपन्यासोऽयम् । स्वभावगतिक्रियापरिणतस्य षटकापक्रमविहीनस्य भगवतः सिद्धक्षेत्राभिमुखस्यध्यानध्येयध्यातृतत्फ लप्राप्तिप्रयोजनविकल्पशून्येन स्वस्वरूपाविचलस्थितिरूपेण परमशुक्लध्यानेन आयुःकर्मक्षये जाते वेदनीयनामगोत्राभिधानशेषप्रकृतीनां निर्नाशो भवति । शुद्धनिश्चयनयेन स्वस्वरूपे सहजमहिम्नि लीनोऽपि व्यवहारेण स भगवान् क्षणार्धेन लोकाग्रं प्राप्नोतीति । (कलश--अनुष्टुभ्) षटकापक्रमयुक्तानां भविनां लक्षणात् पृथक् । सिद्धानां लक्षणं यस्मादूर्ध्वगास्ते सदा शिवाः ॥२९३॥ (कलश--मंदाक्रांता) बन्धच्छेदादतुलमहिमा देवविद्याधराणां प्रत्यक्षोऽद्य स्तवनविषयो नैव सिद्धः प्रसिद्धः । लोकस्याग्रे व्यवहरणतः संस्थितो देवदेवः स्वात्मन्युच्चैरविचलतया निश्चयेनैवमास्ते ॥२९४॥ (कलश--अनुष्टुभ्) पंचसंसारनिर्मुक्तान् पंचसंसारमुक्त ये । पंचसिद्धानहं वंदे पंचमोक्षफ लप्रदान् ॥२९५॥ यह, शुद्ध जीव को स्वभावगति की प्राप्ति होने के उपाय का कथन है । स्वभाव गतिक्रियारूप से परिणत, छह *अपक्रम से रहित, सिद्धक्षेत्र सम्मुख भगवान को परम शुक्लध्यान द्वारा - कि जो (शुक्लध्यान) ध्यान-ध्येय-ध्याता सम्बन्धी, उसकी फल प्राप्ति सम्बन्धी तथा उसके प्रयोजन सम्बन्धी विकल्पों से रहित है और निज स्वरूप में अविचल स्थितिरूप है उसके द्वारा -- आयुकर्म का क्षय होने पर, वेदनीय, नाम और गोत्रनाम की शेष प्रकृतियों का सम्पूर्ण नाश होता है (भगवान को शुक्लध्यान द्वारा आयुकर्म का क्षय होने पर शेष तीन कर्मों का भी क्षय होता है और सिद्धक्षेत्र की ओर स्वभाव गतिक्रिया होती है) । शुद्ध निश्चयनय से सहजमहिमावाले निज स्वरूप में लीन होने पर भी व्यवहार से वे भगवान अर्ध क्षण में (समयमात्र में) लोकाग्र में पहुँचते हैं । (कलश--दोहा)
जो छह अपक्रम सहित हैं ऐसे भववाले जीवों के (संसारियों के) लक्षण से सिद्धों का लक्षण भिन्न है, इसलिये वे सिद्ध ऊर्ध्वगामी हैं और सदा शिव (निरन्तर सुखी) हैं ।छह अपक्रम से सहित हैं जो संसारी जीव । उनसे लक्षण भिन्न हैं सदा सुखी सिध जीव ॥२९३॥ (कलश--वीर)
बन्ध का छेदन होने से जिनकी अतुल महिमा है ऐसे (अशरीरीऔर लोकाग्रस्थित) सिद्ध भगवान अब देवों और विद्याधरों के प्रत्यक्ष स्तवन का विषय नहीं ही हैं ऐसा प्रसिद्ध है । वे देवाधिदेव व्यवहार से लोक के अग्र में सुस्थित हैं और निश्चय से निज आत्मा में ज्यों के त्यों अत्यन्त अविचलरूप से रहते हैं ।देव और विद्याधरगण से नहीं वंद्य प्रत्यक्ष जहान । बंध छेद से अतुलित महिमा धारक हैं जो सिद्ध महान ॥ अरे लोक के अग्रभाग में स्थित हैं व्यवहार बखान । रहें सदा अविचल अपने में यह है निश्चय का व्याख्यान ॥२९४॥ (कलश--दोहा)
(द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव -- ऐसे पाँच परावर्तनरूप) पाँच प्रकार के संसार से मुक्त, पाँच प्रकार के मोक्षरूपी फल को देनेवाले (द्रव्यपरावर्तन, क्षेत्रपरावर्तन, कालपरावर्तन, भवपरावर्तन और भावपरावर्तन से मुक्त करनेवाले), पाँच प्रकार सिद्धों को (पाँच प्रकार की मुक्ति को, सिद्धि को, प्राप्त सिद्ध भगवन्तों को) मैं पाँच प्रकार के संसार से मुक्त होने के लिये वन्दन करता हूँ ।पंचपरावर्तन रहित पंच भवों से पार । पंचसिद्ध बंदौ सदा पंचमोक्षदातार ॥२९५॥ *संसारी जीव को अन्य भव में जाते समय 'छह-दिशाओं में गमन' होता है; उसे 'छह अपक्रम' कहा जाता है । |