
जाइजरमरणरहियं परमं कम्मट्ठवज्जियं सुद्धं ।
णाणाइचउसहावं अक्खयमविणासमच्छेयं ॥177॥
जातिजरामरणरहितं परमं कर्माष्टवर्जितं शुद्धम् ।
ज्ञानादिचतुःस्वभावं अक्षयमविनाशमच्छेद्यम् ॥१७७॥
विन कर्म, परम, विशुद्ध, जन्म-जरा-मरण से हीन है ।
ज्ञानादि चार स्वभावमय, अक्षय, अछेद, अछीन है ॥१७७॥
अन्वयार्थ : [जातिजरामरणरहितम्] जन्म -जरा - मरण रहित, [परमम्] परम, [कर्माष्टवर्जितम्] आठ कर्म रहित, [शुद्धम्] शुद्ध,[ज्ञानादि-चतुःस्वभावम्] ज्ञानादिक चार स्वभाववाला, [अक्षयम्] अक्षय, [अविनाशम्] अविनाशी और [अच्छेद्यम्] अच्छेद्य है ।
Meaning : free from birth, old age and death. pure, supreme and devoid of the eight karmas. It possesses the four-fold nature of being all-knowing etc., , indivisible, indestructible and inexhaustible.
पद्मप्रभमलधारिदेव
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृतकारणपरमतत्त्वस्वरूपाख्यानमेतत् । निसर्गतः संसृतेरभावाज्जातिजरामरणरहितम्, परमपारिणामिकभावेन परमस्वभाव-त्वात्परमम्, त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपत्वात् कर्माष्टकवर्जितम्, द्रव्यभावकर्मरहितत्वाच्छुद्धम्, सहजज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्रसहजचिच्छक्ति मयत्वाज्ज्ञानादिचतुःस्वभावम्, सादिसनिधन-मूर्तेन्द्रियात्मकविजातीयविभावव्यंजनपर्यायवीतत्वादक्षयम्, प्रशस्ताप्रशस्तगतिहेतुभूतपुण्यपाप-कर्मद्वन्द्वाभावादविनाशम्, वधबंधच्छेदयोग्यमूर्तिमुक्त त्वादच्छेद्यमिति । (कलश--मालिनी) अविचलितमखंडज्ञानमद्वन्द्वनिष्ठं निखिलदुरितदुर्गव्रातदावाग्निरूपम् । भज भजसि निजोत्थं दिव्यशर्मामृतंत्वं सकलविमलबोधस्ते भवत्येव तस्मात् ॥२९६॥
(जिसका सम्पूर्ण आश्रय करने से सिद्ध हुआ जाता है ऐसे) कारण-परमतत्त्व के स्वरूप का यह कथन है ।
(कारण परमतत्त्व ऐसा है :-)- निसर्ग से (स्वभाव से) संसार का अभाव होने के कारण जन्म-जरा-मरण रहित है;
- परम-पारिणामिकभाव द्वारा परमस्वभाववाला होने के कारण परम है;
- तीनों काल निरुपाधि-स्वरूपवाला होने के कारण आठ कर्म रहित है;
- द्रव्यकर्म और भावकर्म रहित होने के कारण शुद्ध है;
- सहज-ज्ञान, सहज-दर्शन, सहज-चारित्र और सहज-चित्शक्तिमय होने के कारण ज्ञानादिक चार स्वभाववाला है;
- सादि - सांत, मूर्त इन्द्रियात्मक विजातीय-विभाव व्यंजन पर्याय रहित होने के कारण अक्षय है;
- प्रशस्त-अप्रशस्त गति के हेतुभूत पुण्य-पापकर्मरूप द्वन्द्व का अभाव होने के कारण अविनाशी है;
- वध, बन्ध और छेदन के योग्य मूर्ति से (मूर्तिकता से) रहित होने के कारण अच्छेद्य है ।
(कलश--वीर)
राग-द्वेष के द्वन्द्वों में जो नहीं रहे अघनाशक है ।
अखिल पापवन के समूह को दावानल सम दाहक है ॥
अविचल और अखंड ज्ञानमय दिव्य सुखामृत धारक है ।
अरे भजो निज आतम को जो विमलबोध का दायक है ॥२९६॥
अविचल, अखण्डज्ञानरूप, अद्वंद्वनिष्ठ (रागद्वेषादि द्वंद्व में जो स्थित नहीं है) और समस्त पाप के दुस्तर समूह को जलाने में दावानल समान, ऐसे स्वोत्पन्न (अपने से उत्पन्न होनेवाले) दिव्य सुखामृत को (दिव्यसुखामृत स्वभावी आत्मतत्त्व को), कि जिसे तू भज रहा है उसे, भज; उससे तुझे सकल-विमल ज्ञान (केवलज्ञान) होगा ही ।
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