+ परमात्म तत्त्व निरुपाधि स्वरूप -
अव्वाबाहमणिंदियमणोवमं पुण्णपावणिम्मुक्कं ।
पुणरागमणविरहियं णिच्चं अचलं अणालंबं ॥178॥
अव्याबाधमतीन्द्रियमनुपमं पुण्यपापनिर्मुक्तम् ।
पुनरागमनविरहितं नित्यमचलमनालंबम् ॥१७८॥
निर्बाध, अनुपम अरु अतीन्द्रिय, पुण्य-पाप विहीन है ।
निश्चल, निरालम्बन, अमर-पुनरागमन से हीन है ॥१७८॥
अन्वयार्थ : (परमात्मतत्त्व) [अव्याबाधम्] अव्याबाध,[अतीन्द्रियम्] अतीन्द्रिय, [अनुपमम्] अनुपम, [पुण्यपापनिर्मुक्तम्] पुण्यपाप रहित, [पुनरागमन-विरहितम्] पुनरागमन रहित, [नित्यम्] नित्य, [अचलम्] अचल और [अनालंबम्] निरालम्ब है ।
Meaning : (A perfect soul is really) free from obstructions, independent of the senses, unparallelled, liberated from meritorious and demeritorious karmas. (Again it is) free from rebirths and is eternal, non-transient and independent.

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्रापि निरुपाधिस्वरूपलक्षणपरमात्मतत्त्वमुक्तम् ।
अखिलदुरघवीरवैरिवरूथिनीसंभ्रमागोचरसहजज्ञानदुर्गनिलयत्वादव्याबाधम्, सर्वात्म-प्रदेशभरितचिदानन्दमयत्वादतीन्द्रियम्, त्रिषु तत्त्वेषु विशिष्टत्वादनौपम्यम्, संसृति-पुरंध्रिकासंभोगसंभवसुखदुःखाभावात्पुण्यपापनिर्मुक्त म्, पुनरागमनहेतुभूतप्रशस्ताप्रशस्तमोह-रागद्वेषाभावात्पुनरागमनविरहितम्, नित्यमरणतद्भवमरणकारणकलेवरसंबन्धाभावान्नित्यम्, निजगुणपर्यायप्रच्यवनाभावादचलम्, परद्रव्यावलम्बनाभावादनालम्बमिति।
तथा चोक्तं श्रीमदमृतचंद्रसूरिभिः -
(कलश--मंदाक्रांता)
आसंसारात्प्रतिपदममी रागिणो नित्यमत्ताः
सुप्ता यस्मिन्नपदमपदं तद्विबुध्यध्वमंधाः ।
एतैतेतः पदमिदमिदं यत्र चैतन्यधातुः
शुद्धः शुद्धः स्वरसभरतः स्थायिभावत्वमेति ॥

तथा हि -
(कलश--शार्दूलविक्रीडित)
भावाः पंच भवन्ति येषु सततं भावः परः पंचमः
स्थायी संसृतिनाशकारणमयं सम्यग्द्रशां गोचरः ।
तं मुक्त्वाखिलरागरोषनिकरं बुद्ध्वा पुनर्बुद्धिमान्
एको भाति कलौ युगे मुनिपतिः पापाटवीपावकः ॥२९७॥



यहाँ भी, निरुपाधि स्वरूप जिसका लक्षण है ऐसा परमात्म तत्त्व कहा है ।

(परमात्मतत्त्व ऐसा है :-)
  • समस्त दुष्ट अघरूपी वीर शत्रुओं की सेना के धांधल को अगोचर ऐसे सहज ज्ञानरूपी गढ़ में आवास होने के कारण अव्याबाध (निर्विघ्न) है;
  • सर्व आत्म-प्रदेश में भरे हुए चिदानन्दमयपने के कारण अतीन्द्रिय है;
  • तीन तत्त्वों में विशिष्ट होने के कारण (बहिरात्मतत्त्व, अन्तरात्मतत्त्व और परमात्मतत्त्व इन तीनों में विशिष्ट / खासप्रकार का / उत्तम होने के कारण) अनुपम है;
  • संसाररूपी स्त्री के संभोग से उत्पन्न होनेवाले सुख-दुःख का अभाव होने के कारण पुण्य-पाप रहित है;
  • पुनरागमन के हेतुभूत प्रशस्त-अप्रशस्त मोह-राग-द्वेष का अभाव होने के कारण पुनरागमन-रहित है;
  • नित्य-मरण के तथा उस भव सम्बन्धी मरण के कारणभूत कलेवर के (शरीर के) सम्बन्ध का अभाव होने के कारण नित्य है;
  • निज गुणों और पर्यायों से च्युत न होने के कारण अचल है;
  • पर-द्रव्य के अवलम्बन का अभाव होने के कारण निरालम्ब है ।

    इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि ने (श्री समयसार की आत्मख्याति नामक टीका में १३८वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

    (कलश--हरिगीत )
    अपदपद में मत्त नित अन्धे जगत के प्राणियों ।
    यह पद तुम्हारा पद नहीं निज जानकर क्यों सो रहे ॥
    जागो इधर आओ रहो नित मगन परमानंद में ।
    हो परमपदमय तुम स्वयं तुम स्वयं हो चैतन्यमय ॥७२॥
    हे अंधप्राणियों ! अनादि संसार से लेकर पर्याय-पर्याय में यह रागी जीव सदैव मत्त वर्तते हुए जिसपद में सो रहे हैं / नींद ले रहे हैं वह पद (स्थान) अपद है - अपद है, (तुम्हारा स्थान नहीं है) ऐसा तुम समझो । इस ओर आओ - इस ओर आओ, (यहाँ निवास करो) तुम्हारा पद यह है - यह है जहाँ शुद्ध -शुद्ध चैतन्यधातु निज रस की अतिशयता के कारण स्थायीभावपने को प्राप्त है (स्थिर है — अविनाशी है)(यहाँ ‘शुद्ध’ शब्द दो बार कहा है वह द्रव्य और भाव दोनों की शुद्धता सूचित करता है । सर्व अन्य द्रव्यों से पृथक् होने के कारण आत्मा द्रव्य से शुद्ध है और पर के निमित्त से होनेवाले अपने भावों से रहित होने के कारण भाव से शुद्ध है ।)

    और

    (कलश--वीर )
    भाव पाँच हैं उनमें पंचम परमभाव सुखदायक है ।
    सम्यक् श्रद्धा धारकगोचर भवकारण का नाशक है ॥
    परमशरण है इस कलियुग में एकमात्र अघनाशक है ।
    इसे जान ध्यावें जो मुनि वे सघन पापवन पावक हैं ॥२९७॥
    भाव पाँच हैं, जिनमें यह परम पंचम भाव (परम-पारिणामिकभाव) निरन्तर स्थायी है, संसार के नाश का कारण है और सम्यग्दृष्टियों को गोचर है । बुद्धिमान पुरुष समस्त राग-द्वेष के समूह को छोड़कर तथा उस परम पंचम भाव को जानकर, अकेला, कलियुग में पापवन की अग्निरूप मुनिवर के रूप में शोभा देता है (जो बुद्धिमान पुरुष परम पारिणामिक भाव का उग्ररूप से आश्रय करता है, वही एक पुरुष पापवन को जलाने में अग्नि समान मुनिवर है )

    अध्यात्म-शास्त्रों में अनेक स्थानों पर पाप तथा पुण्य दोनों को 'अघ' अथवा 'पाप' कहा जाता है ।
    पुनरागमन = (चार गतियों में से किसी गति में) फिर से आना; पुनः जन्म धारण करना सो ।
    नित्य मरण = प्रतिसमय होनेवाला आयुकर्म के निषेकों का क्षय