+ कर्म-रहित तथा विकल्प रहित परमतत्त्व -
णवि कम्मं णोकम्मं णवि चिंता णेव अट्टरुद्दाणि ।
णवि धम्मसुक्कझाणे तत्थेव य होइ णिव्वाणं ॥181॥
नापि कर्म नोकर्म नापि चिन्ता नैवार्तरौद्रे ।
नापि धर्मशुक्लध्याने तत्रैव च भवति निर्वाणम् ॥१८१॥
रे कर्म नहिं नोकर्म, चिंता, आर्तरौद्र जहाँ नहीं ।
है धर्म-शुक्ल सुध्यान नहिं, निर्वाण जानो रे वहीं ॥१८१॥
अन्वयार्थ : [न अपि कर्म नोकर्म] जहाँ कर्म और नोकर्म नहीं है, [न अपि चिन्ता] चिन्ता नहीं है, [न एव आर्तरौद्रे] आर्त और रौद्र ध्यान नहीं हैं, [न अपि धर्मशुक्लध्याने] धर्म और शुक्ल ध्यान नहीं हैं, [तत्र एव च निर्वाणम् भवति] वहीं निर्वाण है (अर्थात् कर्मादिरहित परमतत्त्वमें ही निर्वाण है)
Meaning : Where there are neither any karmas, nor quasikarmas, nor is there any anxiety, nor painful or wicked concentration, nor righteous or pure concentration, there only is Nirvana.

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
सकलकर्मविनिर्मुक्त शुभाशुभशुद्धध्यानध्येयविकल्पविनिर्मुक्त परमतत्त्वस्वरूपाख्यानमेतत् ।
सदा निरंजनत्वान्न द्रव्यकर्माष्टकं, त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपत्वान्न नोकर्मपंचकं च,अमनस्कत्वान्न चिंता, औदयिकादिविभावभावानामभावादार्तरौद्रध्याने न स्तः, धर्म-शुक्लध्यानयोग्यचरमशरीराभावात्तद्द्वितयमपि न भवति । तत्रैव च महानंद इति ।
(कलश--मंदाक्रांता)
निर्वाणस्थे प्रहतदुरितध्वान्तसंघे विशुद्धे
कर्माशेषं न च न च पुनर्ध्यानकं तच्चतुष्कम् ।
तस्मिन्सिद्धे भगवति परंब्रह्मणि ज्ञानपुंजे
काचिन्मुक्ति र्भवति वचसां मानसानां च दूरम् ॥३०१॥



यह, सर्व कर्मों से विमुक्त (रहित) तथा शुभ, अशुभ और शुद्धध्यान तथा ध्येय के विकल्पों से विमुक्त परमतत्त्व के स्वरूप का कथन है ।

(परमतत्त्व)
  • सदा निरंजन होने के कारण (उसे) आठ द्रव्य-कर्म नहीं हैं;
  • तीनोंकाल निरुपाधि स्वरूपवाला होने के कारण (उसे) पाँच नोकर्म नहीं है;
  • मन-रहित होने के कारण चिंता नहीं है;
  • औदयिकादि विभाव-भावों का अभाव होने के कारण आर्त और रौद्र ध्यान नहीं हैं;
  • धर्म-ध्यान और शुक्ल-ध्यान के योग्य चरम शरीर का अभाव होने के कारण वे दो ध्यान नहीं हैं ।
वहीं महा-आनन्द है ।

(कलश--रोला)
जिसने घाता पापतिमिर उस शुद्धातम में ।
कर्म नहीं हैं और ध्यान भी चार नहीं हैं ॥
निर्वाण स्थित शुद्ध तत्त्व में मुक्ति है वह ।
मन-वाणी से पार सदा शोभित होती है ॥३०१॥
जो निर्वाण में स्थित है, जिसने पापरूपी अंधकार के समूह का नाश किया है और जो विशुद्ध है, उसमें (उस परम-ब्रह्म में) अशेष (समस्त) कर्म नहीं है तथा वे चार ध्यान नहीं हैं । उस सिद्धरूप भगवान ज्ञानपुंज परमब्रह्म में कोई ऐसी मुक्ति है कि जो वचन और मन से दूर है ।