
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
सकलकर्मविनिर्मुक्त शुभाशुभशुद्धध्यानध्येयविकल्पविनिर्मुक्त परमतत्त्वस्वरूपाख्यानमेतत् । सदा निरंजनत्वान्न द्रव्यकर्माष्टकं, त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपत्वान्न नोकर्मपंचकं च,अमनस्कत्वान्न चिंता, औदयिकादिविभावभावानामभावादार्तरौद्रध्याने न स्तः, धर्म-शुक्लध्यानयोग्यचरमशरीराभावात्तद्द्वितयमपि न भवति । तत्रैव च महानंद इति । (कलश--मंदाक्रांता) निर्वाणस्थे प्रहतदुरितध्वान्तसंघे विशुद्धे कर्माशेषं न च न च पुनर्ध्यानकं तच्चतुष्कम् । तस्मिन्सिद्धे भगवति परंब्रह्मणि ज्ञानपुंजे काचिन्मुक्ति र्भवति वचसां मानसानां च दूरम् ॥३०१॥ यह, सर्व कर्मों से विमुक्त (रहित) तथा शुभ, अशुभ और शुद्धध्यान तथा ध्येय के विकल्पों से विमुक्त परमतत्त्व के स्वरूप का कथन है । (परमतत्त्व)
(कलश--रोला)
जो निर्वाण में स्थित है, जिसने पापरूपी अंधकार के समूह का नाश किया है और जो विशुद्ध है, उसमें (उस परम-ब्रह्म में) अशेष (समस्त) कर्म नहीं है तथा वे चार ध्यान नहीं हैं । उस सिद्धरूप भगवान ज्ञानपुंज परमब्रह्म में कोई ऐसी मुक्ति है कि जो वचन और मन से दूर है ।
जिसने घाता पापतिमिर उस शुद्धातम में । कर्म नहीं हैं और ध्यान भी चार नहीं हैं ॥ निर्वाण स्थित शुद्ध तत्त्व में मुक्ति है वह । मन-वाणी से पार सदा शोभित होती है ॥३०१॥ |