
सव्वदुक्खप्पहीणाणं सिद्धाणं अरहदो णमो
सद्दहे जिणपण्णत्तं पच्चक्खामि य पावयं ॥37॥
णमोत्थु धुदपावाणं सिद्धाणं च महेसिणं
संथरं पडिवज्जामि जहा केवलिदेसियं ॥38॥
अन्वयार्थ : आठ गुण सहित सिद्धों को, नव केवल लब्धि युक्त अरिहंतों को, केवलज्ञान की ऋद्धि जिनको प्राप्त हुई है ऐसे मर्हिषयों को नमस्कार किया है । आत्मसंस्कार काल, सल्लेखना काल और उत्तमार्थ काल इन तीन कालों में यदि मरण उपस्थित हो तो मुनि संस्तर का आश्रय लेते हैं ।
दीक्षा काल, शिक्षा काल, गणपोषण काल, आत्मसंस्कार काल, सल्लेखना काल और उत्तमार्थ काल के भेद से काल के छह भेद हैं।
- जब कोई आसन्न भव्य जीव भेदाभेद रत्नत्रयात्मक आचार्य को प्राप्त करके, आत्मआराधना के अर्थ बाह्य व अभ्यंतर परिग्रह का परित्याग करके, दीक्षा ग्रहण करता है वह [[दीक्षाकाल]] है।
- दीक्षा के अनंतर निश्चय व्यवहार रत्नत्रय तथा परमात्म तत्त्व के परिज्ञान के लिए उसके प्रतिपादक अध्यात्म शास्त्र की जब शिक्षा ग्रहण करता है वह [[शिक्षाकाल]] है।
- शिक्षा के पश्चात् निश्चय व्यवहार मोक्ष मार्ग में स्थित होकर उसके जिज्ञासु भव्यप्राणी गणों को परमात्मोपदेश से पोषण करता है वह [[गणपोषण काल]] है।
- गणपोषण के अनंतर गण को छोड़कर जब निज परमात्मा में शुद्ध संस्कार करता है वह [[आत्मसंस्कार काल]] है।
- तदनंतर उसी के लिए परमात्म पदार्थ में स्थित होकर, रागादि विकल्पों के कृश करने रूप भाव सल्लेखना तथा उसी के अर्थ कायक्लेशादि के अनुष्ठान रूप द्रव्य सल्लेखना है इन दोनों का आचरण करता है वह [[सल्लेखनाकाल]] है।
- सल्लेखना के पश्चात् बहिर्द्रव्यों में इच्छा का निरोध है लक्षण जिसका ऐसे तपश्चरण रूप निश्चय चतुर्विधाराधना, जो कि तद्भव मोक्षभागी ऐसे चरम देही, अथवा उससे विपरीत जो भवांतर से मोक्ष जाने के योग्य है, इन दोनों के होती है। वह [[उत्तमार्थ काल]] कहलाता है।