
एओ य मरइ जीवो एओ य उववज्जइ
एयस्स जाइमरणं एओ सिज्झइ णीरओ ॥47॥
एओ मे सस्सओ अप्पा णाणदंसणलक्खणो
सेसा में बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥48॥
अन्वयार्थ : जीव अकेला ही मरता है और अकेला ही जन्म लेता है । एक जीव के ही यह जन्म और मरण है और अकेला ही कर्म रहित होता हुआ सिद्ध पद प्राप्त करता है । मेरा आत्मा एकाकी है, शाश्वत है और ज्ञान दर्शन लक्षण वाला है। शेष सभी संयोग लक्षण वाले जो भाव हैं वह मेरे से बहिर्भूत हैं ।