
असत्तमुल्लावेंतो पण्णावेंतो य बहुजणं कुणइं
कंदप्पं रइसमावण्णो कंदप्पेसु उववज्जइ ॥64॥
अभिजुंजइ बहुभावे साहू हस्साइयं च बहुवयणं
अभिजोगेहिं कम्मेहिं जुत्तो वाहणेसु उववज्जई ॥65॥
तित्थयराणं पडिणीओ संघस्स य चेइयस्स सुत्तस्स
अविणीदो णियडिल्लो किव्विसियेसूववज्जेई ॥66॥
उम्मग्गदेसओ मग्गणासओ मग्गविपडिवण्णो य
मोहेण य मोहंतो संमोहेसूववज्जेदि ॥67॥
खुद्दी कोही माणी माई तह संकलिट्ठो तवे चरित्ते य
अणुबद्धवेररोई असुरेसुव्वज्जदे जीवो ॥68॥
अन्वयार्थ : जो साधु असत्य बोलता हुआ और उसी को बहुतजनों में प्रतिपादित करता हुआ रागभाव को प्राप्त होता है, कन्दर्प भाव करता है तो वह [[कन्दर्प]] जाति के देवों में उत्पन्न होता है ।
जो साधु अनेक प्रकार के भावों का और हास्य आदि अनेक प्रकार के वचनों का प्रयोग करता है वह अभियोग कर्म से युक्त होता हुआ [[वाहन]] जाति के देवों में उत्पन्न होता है ।
जो तीर्थंकरों के प्रतिकूल है, संघ, जिनप्रतिमा और सूत्र के प्रति अविनयी है और मायाचारी है वह [[किल्विषक]] जाति के देवों में जन्म लेता है ।
जो उन्मार्ग का उपदेशक है, सन्मार्ग के विघातक तथा विरोधी है । वह मोह से अन्य को भी मोहित करता हुआ [[सम्मोह]] जाति के देवों में उत्पन्न होता है ।
जो क्षुद्र, क्रोधी, मानी, मायावी है तथा तप और चारित्र में संक्लेश रखने वाला है, जो वैर को बाँधने में रूचि रखता है वह जीव [[असुर]] जाति के देवों में उत्पन्न होता है ।