
तिणकट्ठेण व अग्गी लवणसमुद्दो णदीसहस्सेहिं
ण इमो जीवो सक्को तिप्पेदुं कामभोगेहिं ॥80॥
अन्वयार्थ : जैसे अग्नि तृण और लकड़ियों के समूह से तृप्त नहीं होती है । जैसे हजारों नदियों से लवण समुद्र तृप्त नहीं होता उसी प्रकार से इच्छित सुख के साधनभूत आहार, स्त्री, वस्त्र आदि काम भोगों से इस जीव को संतुष्ट करना शक्य नहीं है ।