
कंखिदकलुसिदभूदो कामभोगेसु मुच्छिदो संतो
अभुंजंतोवि य भोगे परिणामेण णिवज्झेइ ॥81॥
आहारणिमित्तं किर मच्छा गच्छंति सत्तिंम पुढिंव
सच्चित्तो आहारो ण कप्पदि मणसावि पत्थेदुं ॥82॥
अन्वयार्थ : आकांक्षा और कलुषता से सहित हुआ यह जीव काम और भोगों में र्मूच्छित होता हुआ, भोगों को नहीं भोगता हुआ भी परिणाम मात्र से कर्मों के द्वारा बन्ध को प्राप्त होता है । स्वयंभूरमण समुद्र में महामत्स्य के कर्ण में तन्दुल मत्स्य होते हैं जो कि तन्दुल के समान ही लघु शरीर वाले हैं । वे मत्स्य आदि जन्तु महामत्स्य के मुख में प्रवेश करते हुए और निकलते हुए तमाम जीवों को देखते हैं तो सोचते रहते हैं कि यदि मेरा बड़ा शरीर होता तो मैं इन सबको खा लेता, एक को भी नहीं छोड़ता किन्तु वे खा नहीं पाते हैं। तथापि इस भावना मात्र से पाप बन्ध करते हुए वे तंदुल मत्स्य जीव भी सातवें नरक में चले जाते हैं ।