
पुव्वं कदपरियम्मो अणिदाणो ईहिदूण मदिबुद्धी
पच्छा मलिदकसाओ सज्जो मरणं पडिच्छाहि ॥83॥
हंदि चिरभाविदावि य जे पुरुसा मरणदेसयालम्मि
पुव्वकदकम्मगरुयत्तणेण पच्छा परिबडंति ॥84॥
अन्वयार्थ : पूर्व में कहे हुए कन्दर्प आदि भावना रूप या सदोष आहार की इच्छा रूप विपरीत परिणाम से जीव नरक में चला जाता है इसलिए प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण द्वारा आगम में जो कहा गया है उसका निश्चय करके पहले तपश्चरण का अनुष्ठान करो । पुन: निदान भाव रहित होते हुए तथा कषायों का त्याग करते हुए तुम इस समय कृतकृत्य होकर समाधिमरण का अनुष्ठान करो । जिन्होंने चिरकाल तक अभ्यास किया है ऐसे पुरुष भी मरण के देश-काल में पूर्व में किये गये कर्मों के भार से पुन: च्युत हो जाते हैं ।