
बाहिर जोग विरहिओ अब्भंतरजोग झाणमालीणो
तह तम्हि देसयाले अमूढसण्णो जहसु देहं ॥89॥
अन्वयार्थ : अभ्रावकाश, आतापन और वर्षायोग इन योगों को बाह्ययोग कहते हैं । हिमकाल में नदी के तट समीप ध्यानस्थ होकर शीतपरीषह सहन करना अभ्रावकाश योग है । गर्मी के दिनों में पर्वत के शिलापर ध्यान में निमग्न रहना आतापन योग है तथा वर्षाकाल में झाड़ के नीचे ध्यान करना वर्षायोग अथवा वृक्षमूलयोग है । संन्यास काल में इन योगों से तपश्चरण करने का सामर्थ्य क्षपक में नहीं रहता है । ऐसी परिस्थिति में वह क्षपक अपने आत्मा के स्वरूप का चिंतन करते हुए जो ध्यान होता है वह आभ्यन्तर योग है । इन योग का आश्रय लेकर क्षपक आहारादि संज्ञाओं का त्याग करके देह को छोड़े ।