ण हि तम्हि देसयाले सक्को बारसविहो सुदक्खंधो
सव्वो अणुचिंतेदुं बलिणावि समत्थचित्तेण ॥92॥
अन्वयार्थ : समाधि काल में सम्पूर्ण द्वादशांग ज्ञानरूपी श्रुतवृक्ष का चिंतन करना अर्थात् उसके अर्थ की भावना करना और उसका पठन करना शरीर बल युक्त ऐसे क्षपक को भी अशक्य है । यद्यपि उसका शरीर बल युक्त हो और मन भी एकाग्र हो तो भी समस्त श्रुतज्ञान का चिन्तन शरीर त्याग के समय होना अशक्य है ।