
समणो मेत्ति य पढमं बिदियं सव्वत्थ संजदो मेत्ति
सव्वं च वोस्सरामि य एदं भणिदं समासेण ॥98॥
लद्धं अलद्धपुव्वं जिणवयण सुभासिदं अमिदभूदं
गहिदो सुग्गइमग्गो णाहं मरणस्स बीहेमि ॥99॥
अन्वयार्थ : पहला तो मेरा श्रमण यह रूप है और दूसरा सभी जगह मेरा संयत-संयमित होना यह रूप है इसलिए संक्षेप से कहे गये इन सभी अयोग्य का मैं त्याग करता हूँ । जिनको पहले कभी प्राप्त नहीं किया था। ऐसे अलब्धपूर्ण, अमृतमय, जिनवचन सुभाषित को मैंने अब प्राप्त किया है । अब मैंने सुगति के मार्ग को ग्रहण कर लिया है इसलिए अब मैं मरण से नहीं डरता हूँ ।