चिरउसिदबंभयारी पप्फोडेदूण सेसयं कम्मं
अणुपुव्वीय विसुद्धो सुद्धो सिद्धिं गिंद जादि ॥102॥
अन्वयार्थ : चिरकाल तक ब्रह्मचर्य का उपासक साधु शेष कर्म को दूर करके क्रम से विशुद्ध होता हुआ शुद्ध होकर सिद्ध गति को प्राप्त कर लेता है ।