जम्मालीणा जीवा तरंति संसारसायरमणंतं
तं सव्वजीवसरणं णंददु जिणसासणं सुइरं ॥115॥
जा गदी अरहंताणं णिट्ठिदट्ठाणं च जा गदी
जा गदी वीदमोहाणं सा मे भवदु सस्सदा ॥116॥
अन्वयार्थ : जिसका आश्रय लेकर जीव अनन्त सन्सार-समुद्र को पार कर लेते हैं, सभी जीवों का शरण-भूत वह जिन-शासन चिरकाल तक वृद्धिंगत होवे । अर्हन्तों की जो गति है और सिद्धों की जो गति है तथा वीत-मोह जीवों की जो गति है, वहीँ गति मेरी सदा होवे ।