
उवसंपया य णेया पंचविहा जिणवरेहिं णिद्दिट्ठा
विणए खेत्ते मग्गे सुहदुक्खे चेव सुत्ते य ॥139॥
अन्वयार्थ : उपसंपत् का अर्थ है उपसेवा अर्थात् अपना निवेदन करना। गुरुओं को अपना आत्मसमर्पण करना उपसंवत् है जो कि विनय आदि के विषय में किया जाता है इसलिए इसके पाँच भेद हैं -- विनयोपसंपत्, क्षेत्रोपसम्पत्, मार्गोपसंपत्, सुख-दु:खोपसम्पत् और सूत्रोपसंपत् ।