+ क्षेत्रोपसंपत् का स्वरूप -
संजमतवगुणसीला जमणियमादी य जह्मि खेतह्मि
वड्ढंति तह्मि वासो खेत्ते उवसंपया णेया ॥141॥
अन्वयार्थ : जिस क्षेत्र में संयम, तप, गुण, शील तथा यम और नियम वृद्धि को प्राप्त होते हैं उस क्षेत्र में निवास करना यह क्षेत्रोपसंपत् है ।