+ मार्गोपसंपत् का स्वरूप -
पाहुणवत्थव्वाणं अण्णोण्णागमणगमणसुहपुच्छा
उपसंपदा य मग्गे संजमतवणाणजोगजुत्ताणं ॥142॥
अन्वयार्थ : यदि आगन्तुक साधु किसी संघ में आये हैं तो वे साधु और अपने वसतिका स्थान आदि में ठहरे हुए साधु आपस में एक दूसरे से मार्ग के आने जाने से सम्बन्धित कुशल प्रश्न करते हैं अर्थात् 'आपका विहार सुख से हुआ है न ? 'आप वहाँ से सुखपूर्वक तो आ रहे हैं न ?' इत्यादि मार्ग विषयक सुख समाचार पूछना मार्गोपसंपत् है । आगन्तुक साधु-जो संयम, तप, ज्ञान और ध्यान से सहित हैं ऐसे साधु यदि विहार करते हुए आ रहे हैं तो वे आगन्तुक साधु कहलाते हैं ।