
सुहदुक्खे उवयारो वसहीआहारभेसजादीहिं
तुह्मं अहंति वयणं सुहदुक्खुवसंपया णेया ॥143॥
अन्वयार्थ : यदि आगन्तुक साधु सुखी है और उन्हें यदि मार्ग में शिष्य आदि का लाभ हुआ है तो उन्हें उनके लिए उपयोगी पिच्छी कमण्डलु आदि देना और यदि आगन्तुक साधु दु:खी है, व्याधि आदि से पीड़ित हैं तो उनके लिए सुखप्रद शय्या संस्तर आदि आसन, औषध, अन्न-पान से तथा उनके हाथ-पैर दबाना आदि वैयावृत्ति से उनका उपकार करना । 'मैं आपका ही हूँ' आप जो आदेश करेंगे वह सब हम करेंगे' अथवा जों यह सब मेरा है वह सब आपका ही है ऐसे वचन बोलना यह सब सुखदु: खोपसंपत् है ।