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आगन्तुक मुनि और वास्तव्य मुनि की आपस में चर्या
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आगंतुयवत्थव्वा पडिलेहाहिं तु अण्णमण्णाहिं
अण्णोण्णकरणचरणं जाणणहेदुं परिक्खंति ॥163॥
अन्वयार्थ :
आगन्तुक और वास्तव्य मुनि अन्य-अन्य क्रियाओं के द्वारा और प्रतिलेखन के द्वारा परस्पर में एक-दूसरे की क्रिया और चारित्र को जानने के लिए परीक्षा करते हैं ।