
जदि चरणकरणसुद्धो णिच्चुज्जुत्तो विणीदमेधावी
तस्सिट्ठं कधिदव्वं सगसुदसत्तीए भणिऊण ॥167॥
अन्वयार्थ : यदि आगन्तुक मुनि चारित्र और क्रियाओं में शुद्ध है, नित्य ही उद्यमशील है अर्थात् अतिचार रहित आचरण वाला है, विनयी और बुद्धिमान है तो वह जो पढ़ना चाहता है उसे संघ में स्वीकार करके उसे उसकी बुद्धि के अनुरूप अध्ययन कराना चाहिए ।