
एवं गुणवदिरित्तो जदि गणधारित्तं करंदि अज्जाणं
चत्तारि कालगा से गच्छादिविराहणा होज्ज ॥185॥
अन्वयार्थ : उपर्युक्त गुणों से रहित मुनि, आचार्य यदि आर्यिकाओं का प्रतिक्रमण आदि सुनकर उन्हें प्रायश्चित आदि देने रूप गणधरत्व करता है तो उसके चार कालों की विराधना हो जाती है ।