
अण्णोण्णणुवूâलाओ अण्णोण्णहिरक्खणाभिजुत्ताओ
गयरोसवेरमायासलज्जमज्जादकिरियाओ ॥188॥
अज्झयणे परियट्ठे सवणे कहणे तहाणुपेहाए
तवविणयसंजमेसु ये अविरहिदुपओगजोगजुत्ताओ ॥189॥
अन्वयार्थ : परस्पर में एक दूसरे के अनुकूल और परस्पर में एक दूसरे की रक्षा में तत्पर, क्रोध, वैर और मायाचार से रहित तथा लज्जा, मर्यादा और क्रियाओं से सहित रहती हैं । पढ़ने में, पाठ करने में, सुनने में, कहने में और अनुप्रेक्षाओं के चिन्तवन में, तथा तप में, विनय में और संयम में नित्य ही उद्यत रहती हुई ज्ञानाभ्यास में तत्पर रहती हैं ।