
अविकारवत्थवेसा जल्लमलविलित्तचत्तदेहाओ
धम्मकुलकित्तिदिक्खापडिरूपविसुद्धचरियाओ ॥190॥
अन्वयार्थ : विकार रहित वस्त्र और वेष को धारण करने वाली, पसीना-युक्त मैल और धूलि से लिप्त रहती हुई वे शरीर-संस्कार से शून्य रहती हैं । धर्म, कुल, कीर्ति और दीक्षा के अनुकूल निर्दोष चर्या को करती हैं ।