
वंदित्तु जिणवराणं तिहुयण जयमंगलोववेदाणं ।
कंचणपियंगुविद्दुमघण कुंदमुणालवण्णाणं ॥769॥
अन्वयार्थ : सुवर्ण, शिरिशपुष्प, मूंगा, धन, कुंद-पुष्प और कमलनाल के सामान वर्ण वाले त्रिभुवन में जय और मंगल से युक्त ऐसे तीर्थंकरों को नमस्कार करके, मैं अनागार भावना को कहूंगा ।