+ लिंग-शुद्धि -
चलचवलजीविदमिणं णाऊण माणुसत्तणमसारं ।
णिव्विण्णाकामभोगा धम्मम्मि उवट्ठिदमदीया ॥775॥
अन्वयार्थ : यह मनुष्य भव चल-अस्थिर प्रतिसमय में विनश्वर है। प्रतिसमय आयु कम होती है अत: यह चल है । मरण के आवीचिमरण और तद्भव-मरण ऐसे दो भेद हैं। जैसा मनुष्य भव चल रहा है वैसा वह चपल है अर्थात् विषादिकों से इसका नाश होता है, आकाश में बिजली प्रकट होकर शीघ्र ही नष्ट होती है वैसा मनुष्य भव शीघ्र नष्ट होता है । यह असार है ऐसा जानकर कामभोग से विरक्त मुनिजन धर्म में निर्ग्रन्थतारूप चारित्र में स्थित होते हैं ।