
एयाइणो अविहला गिरिकंदरेसु सप्पुरिसा ।
धीरा अदीणमणसा रममाणा वीरवयणम्मि ॥789॥
वसधिसु अप्प्डिबद्धा ण ते ममत्तिं करेंति वसधीसु ।
सुण्णागारमसाणे वसंति ते वीरवसधीसु ॥790॥
अन्वयार्थ : वे मुनि सहाय से रहित, विह्वलता से रहित, धैर्य, संतोष, सत्त्व, उत्साह से सम्पन्न होकर पर्वत के जल विदीर्ण प्रदेश में रहते हैं । वे सत्पुरुष, धैर्यशाली, दीनतारहित होकर वीरप्रभु के वचनों में क्रीड़ा करते हैं । वीर के वचन -- शरीर से आत्मा भिन्न है, शरीर अचेतन है, आत्मा ज्ञानी है इत्यादि भेद का प्रतिपादन करने वाले हैं इनके चिंतन में वे नित्य तत्पर रहते हैं । वे मुनि वसतिका में ममत्व नहीं करते हैं अर्थात् यह वसतिका मेरी हैं इसमें मैं रहता हूँ ऐसा अभिप्राय उनके मन में नहीं रहता है । उनको वसतिका में रहने का मोह नहीं रहता है । वे शून्य घरों में निर्भय होकर रहते हैं । श्मशान में भयरहित होकर रहते हैं । ये स्थान महाभयंकर होने पर भी नि:संग ऐसे यु मुनिराज रहते हैं अत: इनसे अधिक शूर और कौन हो सकता है ।