+ मुनिराज के सत्त्व गुण -
पब्भार कंदरेसु अ कापुरिसभयंकरेसु सप्पुरिसा ।
वसधी अभिरोचति य सावदबहुघोर गंभीरा ॥791॥
एयंतम्मि वसंता वयवग्घतरच्छ अच्छभल्लाणं ।
आगुंजियमारसियं सुणंति सद्दं गिरिगुहासु ॥792॥
रिंत्तचरसउणाणं णाणारुदरसिदभीदसद्दालं ।
उण्णावेंति वणंतं जत्थ वसंता समणसीहा ॥793॥
सीहा इव णरसीहा पव्वयतडकडयकंदरगुहासु ।
जिणवयणमणुमणंता अणुविग्गमणा परिवसंति ॥794॥
सावदसयाणुचरिये परिभयभीमंधयारगंभीरे ।
धम्माणुरायरत्ता वसंति रिंत्त गिरिगुहासु ॥795॥
अन्वयार्थ : पर्वत के तट और जलाघात होने से बने हुए पर्वत के निम्न प्रदेश-कंदरादिक इनमें वे धीर मुनि रहते हैं । ये प्रदेश धैर्य रहित पुरुषों को महाभयप्रद हैं । परन्तु ऐसे प्रदेशों में रहना सत्पुरुषों को पसंद होता है । ये सत्पुरुष जहाँ सिंह, बाघ, सर्प इत्यादि प्राणी प्राणी निवास करते हैं, ऐसे रौद्रवन प्रदेशों में वास करना इनको पसंद होता है । तथा पर्वत की गुहा में रहने वाले मुनिराज भेड़िया, बाघ, चीता, रीछ, भालू आदि के शब्द गुंजते हुए सुनते हैं तथा इन प्राणियों की घोर गर्जना सुनते हैं तो भी अपने धैर्य से चलित नहीं होते हैं । रात में घूमने वाले घूघू आदि पक्षियों के अनेक प्रकार के रोने सहित भयंकर शब्द जिस वन में प्रतिशब्द युक्त होते हैं ऐसे वन में वे मुनिसिंह रहते हैं । तथा सिंह के समान ये नरश्रेष्ठ पर्वत के तटपर और पर्वत पर ऊध्र्व भाग पर तथा पर्वत के कंदरा में जिनवचन (जिनागम) को मन में स्मरण करते हुए निर्भय होकर रहते हैं । सिंह, व्याघ्र आदि हिंसक प्राणी जहाँ हमेशा विचरते हैं, जहाँ हमेशा भय उत्पन्न होता है, जहाँ सूर्य किरणों का भी प्रवेश नहीं होता है । ऐसे पर्वत की गुहाओं में धर्मानुरागी चारित्र तत्पर मुनि रहते हैं ।