+ अनित्य अनुप्रेक्षा का सामान्य स्वरूप -
जं किंचिवि उप्पण्णं तस्स विणासो हवेइ णियमेण
परिणाम-सरूवेण वि ण य किंचिवि सासयं अत्थि ॥4॥
अन्वयार्थ : [जं किंचिवि उप्‍पण्‍णं] जो कुछ भी उत्‍पन्‍न हुआ है [तस्‍स णियमेण विणासो हवेई] उसका नियम से नाश होता है [परिणामसरूवेणवि] परिणाम-स्‍वरूप से तो [ण किंचिवि सासयं अत्थि] कुछ भी नित्‍य नहीं है ।

  छाबडा 

छाबडा :

सब वस्तुएं सामान्‍य-विशेष स्‍वरूप हैं । सामान्‍य तो द्रव्‍य को और विशेष गुण / पर्याय को कहते हैं सो द्रव्‍यरूप से तो वस्‍तु नित्‍य ही है तथा गुण भी नित्‍य ही है और पर्याय है व‍ह अनित्‍य है इसको परिणाम भी कहते है; यह प्राणी पर्यायबुद्धि है सो पर्याय को उत्‍पन्‍न होते व नष्‍ट होते देखकर हर्ष-विषाद करता है तथा उसको नित्‍य रखना चाहता है इसप्रकार के अज्ञान से दुखी होता है उसको इस भावना का चिंतवन इसप्रकार करना योग्‍य है कि:-

मैं द्रव्‍यरूप से नित्‍य जीव-द्रव्‍य हूँ, उत्‍पन्‍न होती है तथा नाश होती हैं यह पर्याय का स्‍वभाव है इसमें हर्ष विषाद कैसा ? यह शरीर, जीव-पुद्गल की संयोग-जनित पर्याय है । धन धान्‍यादिक, पुद्गल-परमाणुओं की स्‍कन्‍ध-पर्याय हैं । इनके संयोग और वियोग नियम से अवश्‍य है, स्थिरता की बुद्धि करता है सो मोह-जनित भाव है इसलिये वस्‍तु-स्‍वरूप को समझकर हर्ष विषादादिकरूप नहीं होना चाहिए। आगे इस ही को विशेषरूप से कहते हैं :-