जम्मं मरणेण समं संपज्जइ जोव्वणं जरा-सहियं
लच्छी विणास-सहिया इयं सव्वं भंगुरं मुणह ॥5॥
अथिरं परिणय-सयणं पुत्त-कलत्तं सुमित्त-लावण्णं
गिह-गोहणाइ सव्वं णव-घण-विंदेण सारिच्छं ॥6॥
अन्वयार्थ : [जम्मं मरणेण समं] यह जन्म है सो मरण सहित है [जुव्वणं जरासहियं संपज्जइ] यौवन है सो जरा सहित उत्पन्न होता है [लच्छी विणाससहिया] लक्ष्मी है सो विनाश सहित उत्पन्न होती है [इयसव्वं भंगुरं मुणह] इस प्रकार से सब वस्तुओं को क्षणभंगुर जानो ।
[परियणसयणं] परिवार, बन्धुवर्ग [पुत्तकलत्तं] पुत्र, स्त्री [सुमित्त] अच्छे मित्र [लावण्णं] शरीर की सुन्दरता [गिहगोहणाइ सव्वं] गृह गोधन इत्यादि समस्त वस्तुएँ [णवघणविंदेण सारिच्छं] नवीन मेघ-समूह के समान [अथिरं] अस्थिर हैं ।
छाबडा
छाबडा :
जितनी अवस्थाये संसार में हैं, वे सब ही विरोधी भाव को ही लिये हुए है । यह प्राणी जन्म होता है तब उसको स्थिर मानकर हर्ष करता है, मरण होने पर नाश मानकर शोक करता है । इसीप्रकार से इष्ट की प्राप्ति में हर्ष करता है सो यह मोह का माहात्म्य है । ज्ञानियों को समभावरूप से रहना चाहिये ।
ये सब ही वस्तुएं नाशमान् जानकर हर्ष-विषाद नहीं करना चाहिए ।
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