+ प्राप्त लक्ष्मी का क्या करना चाहिए? -
ता भुंजिज्जउ लच्छी दिज्जउ दाणे दया-पहाणेण
जा जल-तरंग-चवला दो तिण्णि दिणाइ चिट्ठेइ ॥12॥
अन्वयार्थ : [जा लच्‍छी] जो लक्ष्‍मी [जलतरंगचवला] पानी की लहर के समान चंचल है [दो तिण्‍णदिणाणि चिठ्टेइ] दो तीन दिन तक चेष्‍टा करती है अर्थात विद्यमान है तब तक [ता भुंजिज्‍जउ] उसको भोगो [दयापहाणेण दाणं दिज्‍जउ] दया-प्रधान होकर दान दो ।

  छाबडा 

छाबडा :

कोई कृपण-बुद्धि इस लक्ष्‍मी को इकठ्टी करके स्थिर रखना चाहता हो उसको उपदेश है कि - यह लक्ष्‍मी चंचल है, रहनेवाली नहीं है, जो थोड़े दिन विद्यमान है तो भगवान की भक्ति-निमित्त तथा परोपकार-निमित्त दान में खरचो और विवेक सहित भोगो ।

यहाँ प्रश्‍न - भोगने में तो पाप होता है फिर भोगने का उपदेश क्‍यों दिया ?

उसका समाधान – इकठ्टी करके रखने में पहिले तो ममत्‍व बहुत होता है तथा किसी कारण से नाश हो जाय तब बड़ा ही दु:ख होता है । आसक्‍तपने से कषाय तीव्र तथा परिणाम मलिन सदा रहते हैं । भोगने से परिणाम उदार रहते हैं मलिन नहीं रहते । उदारता से भोग सामग्री में खर्च करे तो संसार में यश फैलता है और मन भी उज्‍जवल प्रसन्‍न रहता है । यदि किसी अन्‍य कारण से नाश भी हो जाय तो दु:ख बहुत नहीं होता है इत्‍यादि भोगने में भी गुण होते हैं । कृपण के तो कुछ भी गुण नहीं होता । केवल मन की मलिनता का ही कारण है । यदि कोई सर्वथा त्‍याग ही करे तो उसको भोगने का उपदेश नहीं है ।