अन्वयार्थ : [पूण] और [जो लच्छिं संचदि] जो लक्ष्मी को इकठ्टी करता है [ण य भुजदि] न तो भोगता है [पत्तेसु णेय देदि] और न पात्रों के निमित्त दान करता है [सो अप्पाणं वंचदि] वह अपनी आत्मा को ठगता है [तस्स मणुयत्तं णिप्फलं] उसका मनुष्य-पना निष्फल है ।
छाबडा
छाबडा :
जिस पुरूष ने लक्ष्मी को करके संचय ही किया, दान तथा भोग में खर्च नहीं की, उसने मनुष्य-भव पा करके क्या किया ? निष्फल ही खोया, केवल अपनी आत्मा को ठगा ।