+ लक्ष्मी का दास -
जो वड्ढारदि लच्छिं बहु-विह-बुद्धीहिं णेय तिप्पेदि
सव्वारंभं कुव्वदि रत्ति-दिणं तं पि चिंतेइ ॥17॥
ण य भुंजदि वेलाए चिंतावत्थो ण सुवदि रयणीए
सो दासत्तं कुव्वदि विमोहिदो लच्छि-तरुणीए ॥18॥
अन्वयार्थ : [जो] जो पुरूष [बहुविह‍बुद्धीहिं] अनेक प्रकार की कला चतुराई और बुद्धि के द्वारा [ल‍च्छिं बड्ढारदि] लक्ष्‍मी को बढ़ता है [णेय तिप्‍पेदि] तृप्‍त नहीं होता है [सव्‍वारंभं कुव्‍वदि] इसके लिये असि-मसि-कृषि आदि क सब आरंभ करता है [रत्तिदिणं तं पि चिंतेइ] रात दिन इसी के आरंभ का चिंतवन करता है [वेलाए ण य भुंजदि] समय पर भोजन नहीं करता है [चिंतावत्‍थो रयणीए ण सु‍वदि] चिंतित होता हुआ रात में सोता भी नहीं है [सो] वह पुरूष [लच्छि-तरूणीए विमोहिदो] लक्ष्‍मी-रूपी युवती से मोहित होकर [दासत्‍तं कुव्‍वदि] उसका किंकरपना करता है ।

  छाबडा 

छाबडा :

जो स्‍त्री का किंकर होता हैं उसको संसार में 'मोहल्‍या' ऐसे निंद्य-नाम से पुकारते हैं । जो पुरूष निरंतर लक्ष्‍मी के निमित्‍त ही प्रयास करता है सो लक्ष्‍मी-रूपी स्‍त्री का मोहल्‍या है ।

अब जो लक्ष्‍मी को धर्म-कार्य में लगाता है उसकी प्रशंसा करते है :-