अन्वयार्थ : [जो] जो पुरूष (पुण्यके उदयसे)[वड्ढमाण लच्छिं] बढ़ती हुई लक्ष्मी को [अणवरयं] निरंतर [धम्मकज्जेसु देदि] धर्म के कार्यों में देता है [सो पंडिएहिं थुव्वदि] वह पुरूष पंडितों द्वारा स्तुति करने योग्य है [वि तस्स लच्छी सहला हवे] और उसी की लक्ष्मी सफल है ।
छाबडा
छाबडा :
लक्ष्मी पूजा, प्रतिष्ठा, यात्रा, पात्र-दान, परोपकार इत्यादि धर्म-कार्यों में खर्च की गई ही सफल है, पंडित लोग भी उसकी प्रशंसा करते हैं ।