+ मोह का महात्मय -
जल-बुव्बुय-सारिच्छं धण-जोवण्ण जीवियं पि पच्छंता
मण्णंति तो वि णिच्चं अइ बलिओ मोह-माहप्पो ॥21॥
अन्वयार्थ : (यह प्राणी) [धणजुव्‍वणजीवियं] धन, यौवन, जीवन को [जलबुब्‍बुस-सारिच्‍छं] जल के बुदबुदे के समान (तुरंत नष्‍ट होते) [पेच्‍छंता पि] देखते हुए भी [णिच्‍चं मण्‍णंति] नित्‍य मानता है (यह बड़े ही आश्‍चर्यकी बात है) [मोहमाहप्‍पो अइवलिओ] मोह का माहात्‍म्‍य बड़ा बलवान है ।

  छाबडा 

छाबडा :

वस्‍तु-स्‍वरूप का अन्‍यथा ज्ञान कराने में मदिरा पीना, जवरादिक रोग, नेत्र विकार, अन्‍धकार इत्‍याददि अनेक कारण है परन्‍तु यह मोह भाव सबसे बलवान है, वस्‍तु को प्रत्‍यक्ष विनाशीक देखता है तो भी नित्‍य ही मान्‍य कराता है तथा मिथ्‍यात्‍व काम, क्रोध, शोक इत्‍यादिक हैं वे सब मोह ही के भेद हैं, ये सब ही वस्तु स्‍वरूप में अन्‍यथा-बुद्धि कराते है ।

अब इस कथन का संकोच करते है :-