+ शरण की कल्पना अज्ञान -
एवं पेच्छंतो वि हु गह-भूय-पिसाय -जोइणी-जक्खं
सरणं मण्णइ मूढो सुगाढ-मिच्छत्त-भावादो ॥27॥
अन्वयार्थ : [एवं पेच्‍छंतो वि हु] ऐसे (पूर्वोक्त-प्रकार अशरण) प्रत्‍यक्ष देखता हुआ भी [मूढो] मूढ प्राणी [सुगाढमिच्‍छत्तभावादो] तीव्र-मिथ्‍यात्‍व-भाव से [गहभूयपिसाय जोइणी जक्‍खं] सूर्यादि ग्रह, भूत, व्‍यंतर, पिशाच, योगिनी, चंडिकादिक, यक्ष, मणिभद्रादिक को [सरणं मण्‍णइ] शरण मानता है ।

  छाबडा 

छाबडा :

यह प्राणी प्रत्‍यक्ष जानता है कि मरण से बचानेवाला कोई भी नहीं है तो ग्रहादिक को शरण मानता है सो यह तीव्र-मिथ्‍यात्‍व का माहात्‍म्‍य है ।

अब मरण है सो आयुके क्षय से होता है यह कहते हैं :-