+ परमार्थ शरण -
दंसण-णाण-चरित्तं सरणं सेवेह परम-सद्धाए
अण्णं किं पि ण सरणं संसारे संसरंताणं ॥30॥
अन्वयार्थ : (हे भव्‍य) [परमसद्धाए] परम श्रद्धा से [दंसणणाणचरित्तं] दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्‍वरूप [सरणं सेवेहि] शरण का सेवन कर । [संसारे संसरंताणं] इस संसार में भ्रमण करते हुए जीवों को [अण्‍णं किं पि ण सरणं] अन्‍य कुछ भी शरण नहीं हैं ।

  छाबडा 

छाबडा :

सम्‍यग्‍दर्शन-ज्ञान-चारित्र अपना स्‍वरूप है सो यह ही परमार्थरूप (वास्‍तव में) शरण है । अन्‍य सब अशरण है, निश्चय-श्रद्धापूर्वक यह ही शरण ग्रहण करो, ऐसा उपदेश है ।

आगे इसी को दृढ़ करते हैं -