+ निष्कर्ष -
अप्पा णं पि य सरणं खमादि-भावेहिं परिणदो होदि
तिव्व-क सायाविट्ठो अप्पाणं हणदि अप्पेण ॥31॥
अन्वयार्थ : [स अप्‍पाणं खमादिभावेहिं परिणदं होदि सरणं] जो अपने का क्षमादि दश-लक्षण-रूप परिणत करता है सो शरण है [तिव्‍वकषायाविट्ठो अप्‍पेण अप्‍पाणं हणदि] और जो तीव्र-कषाय युक्त होता है सो अपने ही द्वारा अपने को हनता है ।

  छाबडा 

छाबडा :

परमार्थ से विचार करें तो आप ही अपनी रक्षा करनेवाला है तथा आप ही घातनेवाला है । क्रोधादिरूप परिणाम करता है तब शुद्ध चैतन्‍य का घात होता है और क्षमादि परिणाम करता है तब अपनी रक्षा होती है । इन भावों से जन्‍म-मरण से रहित होकर अविनाशीपद प्राप्‍त होता है ।